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स्वसंवेदनज्ञानवादः
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अस्तु वा किञ्चिल्लिङ्गम्, तथापि-ज्ञानस्याप्रत्यक्षतैकान्ते तत्सम्बन्धासिद्धिः । न चासिद्धसम्बन्ध (न्धं) लिङ्ग कस्यचिद्गमकमतिप्रसङ्गात् । ततः परोक्षकान्ताग्रहग्रहाभिनिवेशपरित्यागेन 'ज्ञानं स्वव्यवसायात्मकमर्थज्ञप्तिनिमित्तत्वात् आत्मवत्' इत्यभ्युपगन्तव्यम् । नेत्रालोकादिनानेकान्त इत्यप्ययुक्तम् ; तस्योपचारतोऽर्थज्ञप्तिनिमित्तत्वसमर्थनात्, परमार्थतः प्रमातृप्रमाणयोरेव तन्निमित्तत्वोपपत्तेरित्यलमतिप्रसङ्गेन ।
मीमांसक के कहने से मान भी लेवें कि कोई हेतु है जो ज्ञान को सिद्ध करता है, किन्तु ज्ञान को सर्वथा-एकान्तरूप से अप्रत्यक्ष मानने से-उस परोक्ष ज्ञान के साथ हेतु का अविनाभाव संबंध सिद्ध नहीं होता है, अविनाभाव संबंध के विना हेतु अपने साध्य को सिद्ध नहीं कर सकता, अन्यथा अतिप्रसंग आयेगा, उपर्युक्त सभी दोषों को दूर करने के लिये मीमांसकों को ज्ञान को सर्वथा परोक्ष मानने का दुराग्रह छोड़ देना चाहिये । एवं ज्ञान अपने को जानता है क्योंकि वह पदार्थों के जानने में हेतु है जैसे कि आत्मा पदार्थों के जानने में कारण होने से उसको प्रत्यक्ष माना है, इस प्रकार युक्ति संगत बातको स्वीकार करना होगा।
मीमांसक-जैन ने जो ऊपर अनुमान में हेतु दिया है कि पदार्थ के जानने में कारण होने से ज्ञान को स्वव्यवसायी मानना चाहिये सो यह हेतु अर्थात् पदार्थों के जानने में निमित्त होना रूप जो हेतु है वह नेत्र प्रकाश आदि के साथ व्यभिचरित होता है-अनेकान्तिक दोष वाला होता है । मतलब-नेत्रादि इन्द्रियां तथा प्रकाश भी पदार्थों के जानने में हेतु हैं पर उन्हें आपने अपने आपका जानने वाला-स्वव्यवसायी नहीं माना है, अतः जो अर्थज्ञप्ति में हेतु हो वह स्वव्यवसायी है ऐसा इस हेतु से सिद्ध नहीं होता है।
___ जैन-यह कथन अयुक्त है, क्योंकि इन्द्रियां या मन अथवा प्रकाश ये सब के सब जो अर्थज्ञप्ति में कारण हैं वे सब उपचार से हैं। वास्तविकरूप से तो प्रमाताआत्मा और प्रमाण-ज्ञान ये दोनों ही पदार्थों को जानते हैं । इस प्रकार प्रमाता और प्रमारण ही अर्थज्ञप्ति में कारण हैं, यह सिद्ध होता है। अब इस परोक्ष ज्ञान का खंडन करने से बस रहो । ज्ञान तो स्व को संवेदन करने वाला है यह अच्छी तरह से सिद्ध हुआ।
* स्वसंवेदनज्ञान का प्रकरण समाप्त *
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