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________________ स्वसंवेदनज्ञानवादः ३३१ कुतश्च वंवादिनो ज्ञानसद्भावसिद्धि:-प्रत्यक्षात्, अनुमानादेर्वा ? न तावत्प्रत्यक्षात्तस्यातद्विषय. तयोपगमात् । यद्यद्विषयं न भवति न तत्तद्वयवस्थापकम्, यथास्मादृप्रत्यक्षं परमाण्वाद्यविषयं न तद्व्यवस्थापकम् । ज्ञानाविषयं च प्रत्यक्षं परैरभ्युपगतमिति । ___ नाप्यनुमानात् ; तदविनाभाविलिङ्गाभावात् । तद्धि अर्थज्ञप्तिः, इन्द्रियाथौं वा, तत्सहकारिप्रगुणं मनो वा ? अर्थज्ञप्तिश्चेत्सा कि ज्ञानस्वभावा, अर्थस्वभावा वा? यदि ज्ञानस्वभावा; तदाऽ तो आप ज्ञान के सद्भाव की सिद्धि भी कैसे कर सकेंगे ? क्या प्रत्यक्षप्रमाण से ज्ञान के सद्भाव की सिद्धि करेंगे या अनुमान प्रमाण से करेंगे ? प्रत्यक्ष प्रमाण से तो कर नहीं सकते क्योंकि प्रत्यक्ष प्रमाण का ज्ञान विषय ही नहीं है, जो जिसका विषय नहीं है वह उसका व्यवस्थापक भी नहीं होता है, यथा हम जैसे छद्मस्थ जीवों का प्रत्यक्ष ज्ञान परमाणु आदि को विषय नहीं करता है अत: उसका वह व्यवस्थापक भी नहीं होता है, आपने प्रत्यक्षप्रमाण को ज्ञान का विषय करनेवाला नहीं माना है । अत: वह ज्ञान को प्रत्यक्ष नहीं कर सकता, इस प्रकार प्रत्यक्षप्रमाण के द्वारा ज्ञान का ग्रहण होना तो सिद्ध नहीं होता। अनुमान प्रमाण से भी ज्ञान के सद्भाव की सिद्धि नहीं कर सकते हो । क्योंकि उस ज्ञान का अविनाभावी ऐसा कोई हेतु नहीं है यदि कहो कि हेतु है तो वह कौनसा होगा ? पदार्थ की ज्ञप्ति, या इन्द्रिय और पदार्थ अथवा इन्द्रियादिक का है सहकारीपना जिसमें ऐसा एकाग्र मन ? यदि पदार्थ की ज्ञप्ति को उसका हेतु बनाते हो तो वह पदार्थ ज्ञप्ति भी किस स्वभाववाली होगी ? ज्ञान स्वभाववाली कि पदार्थ स्वभाववाली ? ज्ञान स्वभाववाली अर्थ ज्ञप्ति ज्ञान को प्रत्यक्ष करने वाले अनुमान में हेतु है यदि ऐसा कहोगे तो वह अभी प्रसिद्ध होने से अनुमापक नहीं बन सकती है-अर्थात् ज्ञान में प्रत्यक्ष होने का स्वभाव है इस बात का ही जब आपको निश्चय नहीं-आप जब ज्ञान को प्रत्यक्ष होना ही स्वीकार नहीं करते हैं तो किस प्रकार ज्ञानस्वभाववाली अर्थज्ञप्ति को हेतु बना सकते हो ? अर्थात् नहीं बना सकते । बड़ा आश्चर्य है कि आप ज्ञानस्वभावपना दोनों में-अर्थज्ञप्ति और करणज्ञान में समान होते हुए भी अर्थज्ञप्ति को तो प्रत्यक्ष मान रहे हो और करणज्ञान को प्रत्यक्ष नहीं मानते, इसमें तो एक महा मोह- मिथ्यात्व ही कारण है, कि जिसके निमित्त से ऐसी विपरीत तुम्हारी मान्यता हो रही है । अर्थज्ञप्ति और करणज्ञान इनमें तो मात्र शब्दों का ही भेद है अर्थ का भेद तो है नहीं फिर भी अपनी स्वच्छंद इच्छा के अनुसार इनमें आप भेद करते हो कि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001276
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 1
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year1972
Total Pages720
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
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