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स्वसंवेदनज्ञानवादः
३२७ वाप्रसिद्धौ परतः कथं तत्सिध्येत् ? विरोधाभावाच्च स्वतस्तसिद्धौ को विरोधः ? कर्तृकरणत्वयोः कर्मत्वेन सहानवस्थानम् ; परतस्तत्सिद्धौ समानम् । घटनाहिज्ञानविशिष्टमात्मानं स्वतोऽहमनुभवामि' इत्यनुभवसिद्ध स्वतः प्रतीयमानत्वापेक्षयापि कर्मत्वम् । तन्नार्थवज्ज्ञानस्य प्रतीतिसिद्धप्रत्यक्षताऽपलापोऽर्थप्रत्यक्षत्वस्याप्यपलापप्रसङ्गात् । प्रतीतिसिद्धस्वभावस्यकत्रापलापेऽन्यत्राप्यनाश्वासान्न क्वचित्प्रतिनियतस्वभावव्यवस्था स्यात् । को जानना भी कठिन होगा कि इस व्यक्ति को ज्ञान अवश्य ही है, क्योंकि इसके उपदेश से पदार्थों का वास्तविक बोध हो जाता है इत्यादि, तथा मुझे स्वयं भी ज्ञान अवश्य है क्योंकि पदार्थ ठीक रूप से मुझे प्रतीत होते हैं, इत्यादि प्रतिभास जो अबाधितपने से हो रहा है वह ज्ञान को सर्वथा परोक्ष मानने में नहीं बन सकता है । अत: ज्ञान को प्रत्यक्ष-स्वसंविदित मानना चाहिये, सर्वथा परोक्ष नहीं । यदि मीमांसक आत्मा और ज्ञान में कथंचितरूप से किसी अपेक्षा से कर्मत्व का अभाव मानते हैं तब तो ठीक है, देखो-जिस स्वरूप से ज्ञान में कर्मत्व की सिद्धि है उसी स्वरूप से उसे प्रत्यक्ष भी मान सकते हैं, घट आदि बाह्यपदार्थों में भी किसी २ स्थूलत्वादि धर्मों की अथवा अंशों की अपेक्षा ही कर्मत्व माना जा सकता है अर्थात् हम जैसे छद्मस्थ पुरुषों का ज्ञान पदार्थों के सर्वांशों को ग्रहण नहीं कर सकता है अतः कुछ अंश ही जानने में आने से वे कर्मरूप हैं, उसी प्रकार आत्मा हो चाहे ज्ञान हो उनकी भी कर्नेश और करणांश रूप से प्रतीति आती है, अतः वे भी प्रत्यक्ष ही कहलावेंगे । कर्ता आत्मा और करणज्ञान प्रतीत हो रहे हैं तो भी उन्हें कर्मरूप नहीं मानना यह विरुद्ध बात होगी। देखिये -प्रतीत होना ही ग्राह्यपना कहलाता है और वही कर्मत्व से प्रसिद्ध होता है, तुम कहो कि जब कर्ता आदि स्वयं ही प्रतीत होते हैं तो उनको कर्मरूप कैसे माना जाय ? मतलब-घट आदि बाह्यपदार्थों का तो "घट को जानता हूं इत्यादिरूप से कर्मपना दिखायी देता है वैसे स्वयं का कर्मपना नहीं दिखता, अत: कर्मपने आत्मादि को नहीं मानते हैं सो भी बात नहीं है । जब आत्मा आदिक पर के लिये कर्मपने' को प्राप्त होते हैं तब अपने लिये कैसे नहीं होगे।
मीमांसक --आत्मा आदि तो पर के लिये कर्मरूप हो जाते हैं उसमें विरोध नहीं है।
जैन--उसी प्रकार स्वयं के लिये भी वे कर्मरूप बन जावेंगे इसमें क्या विरोध है।
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