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भूतचैतन्यवादः
३१३ अन्यस्त्वग्निपूर्वकः तथाद्य चैतन्यं कायाकारपरिणतभूतेभ्यो भविष्यत्यन्यत्तु चैतन्यपूर्वकं विरोधाभावादित्यपि मनोरथमात्रम् ; प्रथमपथिकाग्नेरनग्न्युपादानत्वे जलादीनामप्य जलाधु पादानत्वापत्त: पृथिव्यादिभूतचतुष्ट यस्यतत्त्वान्तरभावविरोधः । येषां हि परस्परमुपादानोपादेयभावस्तेषां न तत्त्वान्तरत्वम् यथा क्षितिविवर्तानाम्, परस्परमुपादानोपादेयभावश्च पृथिव्यादीनामित्येकमेव पुदगलतत्त्वं क्षित्यादिविवर्त्तमवतिष्ठत सहकारिभावोपगमे तु तेषां चैतन्येपि सोऽस्तु । यथैव हि प्रथमाविर्भूतपावकादेस्तिरोहित
प्रकार प्रथम चैतन्य तो शरीराकार परिणत हुए भूतों से पैदा हो जायगा और अन्य मध्य आदि के चैतन्य चैतन्य पूर्वक हो जावेंगे तब कोई विशेष बाधा वाली बात नहीं होगी।
जैन-यह बात भी गलत है, क्योंकि आप यदि इस तरह से रास्ते की अग्नि को बिना अग्नि रूप उपादान के पैदा हुई स्वीकार करेंगे तो जल आदि तत्त्व भी अजल आदि रूप उपादान से उत्पन्न हो जावेंगे । ऐसी हालत में पृथिवी आदि भूतचतुष्टय में भिन्न भिन्न तत्त्वपना होना शक्य नहीं रहेगा, तब पृथिवी आदि में से एक ही तत्त्व सिद्ध होगा, पृथिवी आदि पदार्थ पृथक् तत्त्व नहीं हैं क्योंकि इन चारों में परस्पर उपादान उपादेय भाव पाया जाता है । जिनका परस्पर में उपादान उपादेयपना होता है वे पृथक् पृथक् तत्त्व नहीं कहलाते । जैसे पृथिवी आदि को खुद की पर्यायें परस्पर में उपादान उपादेय भूत हैं अतः वे एक पृथिवी तत्त्व की ही कहलाती हैं । इसी तरह इस भूतचतुष्टय में परस्पर में उपादान उपादेय भाव है। अत: वे भिन्न तत्त्व नहीं हैं एक ही पुद्गल तत्त्व है और उसी एक तत्त्व की पृथिवी आदि पर्यायें हैं ऐसा सिद्ध होवेगा।
यदि चार्वाक कहे कि पथिक की अग्नि के लिये वह जंगल की लकड़ी आदिक पदार्थ सहकारी होता है तो हम जैन भी कहेंगे कि इसी प्रकार चैतन्य को शरीररूप में परिणत हुए भूतमात्र सहकारी कारण होते हैं, उपादान रूप कारण नहीं। आप जिस प्रकार प्रथम बार प्रकट हुई उस पथिकाग्नि को छिपी हुई अग्नि से उत्पन्न हुई मानते हैं, उसी प्रकार हम जैन गर्भ स्थित चैतन्य को छिपे हुए चैतन्य से प्रकट होना मानते हैं । इस प्रकार भूतों से चैतन्य उत्पन्न होता है यह बात गलत सिद्ध हुई।
अनादि एक चैतन्य स्वरूप आत्मा तत्त्व जबतक हम स्वीकार नहीं करते तब तक जन्म लेते ही बालक में इष्ट विषय में तथा अनिष्ट विषय में प्रत्यभिज्ञान होना, अभिलाषा होना सिद्ध नहीं हो सकता, क्योंकि प्रत्यभिज्ञान अभिलाषा आदिक तो
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