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________________ ३१० प्रमेयकमलमार्त्तण्डे कादिभ्यो मदशक्त्यभिव्यक्तिरपि न स्यात् तत्राप्युक्त विकल्पानां समानत्वादित्यप्यसाम्प्रतम् ; तत्रापि द्रव्यरूपतया प्राक्सत्त्वाभ्युपगमात्, सकलभावानां तद्रूपेणानाद्यनन्तत्वात् । शरीरेन्द्रिय विषयसंज्ञेभ्यश्र्व' तन्यस्योत्पत्त्यभ्युपगमात् 'तेभ्यश्चं' तम्' इत्यत्र 'उत्पद्यते ' इति क्रियाध्याहारान्नाभिव्यक्तिपक्षभावी दोषोऽवकाश लभते इत्यन्यः । सोपि चैतन्यं प्रत्युपादानकारणत्वम्, सहकारिकारणत्वं वा भूतानाम् इति पृष्ट स्पष्टमाचष्टाम् ? न तावदुपादानकारणत्वं तेषाम् ; चैतन्ये भूतान्वयप्रसङ्गात्, सुवर्णोपादाने किरीटादौ सुवर्णान्वयवत् पृथिव्याद्य ुपादाने काये पृथिव्याद्यन्वयवद्वा । न चात्रैवम् ; न हि भूतसमुदयः पूर्वमचेतनाकारं परित्यज्य चेतनाकारमाददा (घा) नो अवश्य होता रहता है । उसीको लोक व्यवहार में पैदा होना नष्ट होना इत्यादि नामों से कहा जाता है । चार्वाक :- यदि हम शरीर, इन्द्रियां, विषय आदि संज्ञक भूतचतुष्टय से चैतन्य की उत्पत्ति होती है ऐसा स्वीकार करें तो उपर्युक्त दोष नहीं रहेंगे अतः हम चार्वाक “तेभ्यश्चैतन्यं" इस सूत्रांश के साथ "उत्पद्यते " इस क्रिया का अध्याहार करते हैं, इस तरह करने से अभिव्यक्ति के पक्ष में दिये गये दूषण समाप्त हो जावेंगे । जैन-- यह कथन भी खंडित होता है, हम आपसे पूछते हैं कि भूतों से चैतन्य पैदा होता है सो वे भूतचैतन्य के उपादान कारण हैं कि मात्र सहकारी कारण हैं ? उपादान कारण तो बन नहीं सकते, क्योंकि यदि चैतन्यका उपादान कारण भूतचतुष्टय होता तो उन भूतों का चैतन्य में अन्वयपना होना चाहिये था, जैसे कि सुवर्णरूप उपदान से पैदा हुआ मुकुट सुवर्ण से अन्वय युक्त रहता है, अथवा - पृथिवी प्रादि उपादान से पैदा हुए शरीर में पृथिवी आदि का अन्वयपना रहता है. ऐसा अन्वयपना चैतन्य में नहीं है, देखिये - भूतचतुष्टय कभी अपने पहिले के अचेतन प्रकार को छोड़कर चेतन के प्रकार होते हुए नहीं देखे जाते हैं । तथा-प्रपना २ धारण, द्रवण, उष्णता, ईर स्वभावों का और रूप आदि गुणों का त्याग करते हुए भी नहीं देखे जाते हैं । वे तो अपने भूत स्वभाव युक्त ही रहते हैं । चैतन्य तो धारण आदि स्वभावरहित अंदर में ही स्वसंवेदन से अनुभव में आता है । कोई कहे कि जैसे काजल दीपक रूप उपादान से पैदा हुआ है तो भी उसमें दीपक का अन्वय- भासुरपना नहीं रहता है, इसलिये आपका कथन व्यभिचरित है, सो भी ठीक नहीं, क्योंकि काजल और दीपक इनमें रूप आदिक गुणों का अन्वय तो रहता है, अर्थात् दीपक में भी रूप रस आदि गुण हैं, तथा काजल में भी हैं । पुद्गल के जितने भी विकार होते हैं उन सब में रूपादिका व्यभिचार नहीं हो 1 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001276
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 1
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year1972
Total Pages720
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
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