SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 321
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २७० प्रमेयकमलमार्तण्डे प्रसङ्गात् । चैतन्यस्य च स्वपरप्रकाशात्मकत्वे किं बुद्धिसाध्यं येनासौ कल्प्यते ? बुद्धेश्चाचेतनत्वे विषयव्यवस्थापकत्वं न स्यात् । प्राकारवत्त्वात्तत्त्वमित्यप्ययुक्तम् ; अचेतनस्याकारत्वे (रवत्त्वे)प्यर्थव्यवस्थापकत्वासम्भवात्, अन्यथाऽऽदर्शादे र पि तत्प्रसङ्गादबुद्धिरूपतानुषङ्गः । अन्तःकरणत्व-पुरुषोपभोगप्रत्यासन्नहेतुत्वलक्षणविशेषोपि मनोऽक्षादिनानै कान्तिकत्वान्न बुद्धलक्षणम् । यदि च अयमे कान्त:- अन्तःकरणमन्तरेणार्थमात्मा न प्रत्येति' इति, कथं तहि अन्त:-करणप्रत्यक्षता ? अन्यान्तःकरण बिम्बादेवेति चेत् ; अनवस्था। अन्यान्तःकरणबिम्बमन्तरेणान्तःकरणप्रत्यक्षतायां च होता है । बुद्धि को प्रधान का धर्म मानने से एक बड़ी आपत्ति यह प्रावेगी कि वह अचेतन होने से विषयों की व्यवस्था नहीं कर सकेगी। सांख्य-वह बुद्धि आकार धर्मवाली है अर्थात् उसमें पदार्थ का प्राकार रहता है । अत: वह विषय व्यवस्था करा देती है। जैन-यह कथन अयुक्त है, क्योंकि अचेतन ऐसी जड़ बुद्धि आकार वाली होने पर भी पदार्थ की व्यवस्था को अर्थात् जानने रूप कार्य को जो यह घट है यह इससे भिन्न पट है ऐसी पृथक् पृथक् वस्तुओं की व्यवस्था को नहीं कर सकती है। क्योंकि वह अचेतन है । प्राकार धारण करने मात्र से यदि वस्तु का जानना भी हो जाय तो दर्पण, जल आदि पदार्थ भी बुद्धि रूप मानना चाहिये, क्योंकि प्राकारों को तो वे जड़ पदार्थ भी धारण करते हैं। विशेषार्थ-सांख्य ने बुद्धि को जड़तत्त्व जो प्रधान है उसका धर्म माना है । इसलिये प्राचार्य ने कहा कि अचेतन रूप बुद्धि से पदार्थों का जानना, सब विषयों की पृथक् पृथक् व्यवस्था करना आदि कार्य कैसे निष्पन्न हो सकेंगे। इस पर सांख्य यह जबाब देता है कि बुद्धि अचेतन भले ही रहे किन्तु वह प्राकारवती होने से विषयव्यवस्था कर लेती है, तब इसका खंडन प्राचार्यदेव ने दर्पण के उदाहरण से किया है, दर्पण में भी आकार होता है-अर्थात् पदार्थों का आकार दर्पण में रहता है, किन्तु वह वस्तु व्यवस्था नहीं कर सकता है, प्राकार होने मात्र से वह पदार्थ को यदि जानने लग जाय तब तो जल काच आदि जितने भी पदार्थ पारदर्शी हैं वे सब के सब बुद्धिरूप बन जावेंगे । अतः आकारवान् होने से बुद्धि पदार्थ को जानती है यह बात सिद्ध नहीं होती है। सांख्य-जो अन्तःकरण रूप हो वह बुद्धि है अथवा जो पुरुष के उपभोग का निकटवर्ती साधन हो वह बुद्धि है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001276
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 1
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year1972
Total Pages720
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy