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प्रमेयकमलमार्त्तण्डे
इवशब्दो यथार्थे । यथाऽर्थस्य घटादेस्तदुन्मुखतया स्वोल्लेखितया प्रतिभासनं व्यवसाय तथा ज्ञानस्यापीति ।
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विशेषार्थ – नैयायिक आदि परवादी ज्ञानको अपने आपको जाननेवाला नहीं मानते हैं, सो इस परवादीकी मान्यता को निरस्त करने के लिये आचार्य श्री माणिक्य नंदी ने दो सूत्र रचे हैं । ज्ञान केवल परवस्तुको ही नहीं जानता है, अपितु अपने आपको भी जानता है, यदि ज्ञान स्वयं को नहीं जानेगा तो उसको जानने के लिए दूसरा कोई ज्ञान चाहिये, दूसरे को तीसरा चाहिये, इस तरह अनवस्था प्रावेगी तथा सर्वज्ञका भी अभाव हो जायगा, क्योंकि “सर्वं जानाति इति सर्वज्ञः" व्युत्पत्ति के अनुसार सबको जाने सो सर्वज्ञ कहलाता है, अतः जिसने स्वयंको नहीं जाना तो उसका ज्ञान सबको जाननेवाला नहीं कहलायेगा । इस प्रकार ज्ञानको स्वसंवेद्य नहीं माननेसे अनेक दूषण आते हैं । इस विषय पर ज्ञानांतर वेद्य ज्ञान वाद प्रकरण में विशेष विवेचन होने वाला है ।
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