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________________ चित्राद्वैतवादः "तिष्ठन्त्येव पराधीना येषां च महती कृपा" [ प्रमाणवा० २।१९९ ] इत्यादि । न खलु वन्ध्यासुताधीनः कश्चिद्भवितुमर्हति । मार्गोपदेशोपि व्यर्थो विने याऽसत्त्वात् । नापि ततः कश्चित्सौगती गति गन्तुमर्हति । सुगतसत्ताकालेऽन्यस्यानुत्पत्तेस्तत्कालश्चात्यन्तिक इति । बुद्ध्यन्तरपरिहारेण विवक्षितबुद्ध्यैवानुभवश्चासिद्धः; नीलादीनां बुद्ध्यन्तरेणाप्यनुभवात् । ज्ञानरूपत्वात्तत्सिद्धौ चान्योन्याश्रयः-सिद्ध हि ज्ञानरूपत्वे नीलादीनां बुद्ध्यन्तरपरिहारेण विवक्षितबुद्ध्यवानुभवः सिद्ध्येत्, तत्सि द्वौ च ज्ञानरूपत्वमिति । भेदेन विवेचनाभावमात्रमप्यसिद्ध म; सम्बन्धित्वेन समाधान-यदि सुगत के काल में कोई नहीं रहता है तो फिर आपके प्रमाण समुच्चय ग्रन्थ में ऐसा कैसे लिखा गया है कि "प्रमाणभूताय सुगताय..." प्रमाणभूत सुगत के लिये नमस्कार हो इत्यादि सुगत को छोड़कर यदि अन्य कोई नहीं है तो नमस्कार कौन करेगा ? किसके द्वारा उसकी स्तुति की जायगी ? तथा-जिनकी महती कृपा होती है वे पराधीन-सुगत के आधीन होते हैं इत्यादि वर्णन कैसे करते हैं ? उसी प्रमाणसमुच्चय ग्रन्थ में आया है कि "सुगत निर्वाण चले जाते हैं तो भी दया से ना हृदयवाले उन बुद्ध भगवान की कृपा तो यहां संसार में हमारे ऊपर रहती ही है" इस वर्णन से यह सिद्ध होता है कि सर्वत्र सुगत के सत्ताकाल में अन्य सभी प्राणी मौजद ही थे, यदि सुगतकाल में अन्य कोई नहीं होता तो किसके आधीन सुगत कृपा रहती, क्या बंध्यापुत्र के आधीन कोई होता है ? अर्थात् नहीं होता है। उसी प्रकार पर प्राणी नहीं होते तो उनके आधीन सुगत की कृपा भी नहीं रह सकती, मोक्षमार्ग का उपदेश देना भी व्यर्थ होगा, क्योंकि विनेय-शिष्य प्रादिक तो सुगत के सामने रहते ही नहीं हैं । सुगत का उपदेश सुनकर कोई सुगत के समान सुगति को प्राप्त भी नहीं कर सकता, क्योंकि सुगत के काल में तो अन्य की उत्पत्ति हो ही नहीं सकती और वह सुगत काल तो आत्यन्तिक-अंत रहित है । अन्य बुद्धि का परिहार कर एक विवक्षित बुद्धि के द्वारा ही अनुभव में प्राना अशक्यविवेचन है ऐसा कहना इसलिये असिद्ध है कि नील पीतादिक पदार्थ अन्य अन्य बुद्धियों (ज्ञानों) के द्वारा भी जाने जाते हैंअनुभव में आते हैं। ___शंका-नील आदि पदार्थ ज्ञानरूप हैं, अतः अन्य बुद्धि के परिहार से वे एक बुद्धि के द्वारा गम्य होते हैं। समाधान—ऐसा मानोगे तो अन्योन्याश्रय दोष आता है, नील आदि पदार्थ ज्ञानरूप हैं ऐसा सिद्ध होनेपर तो उनमें अन्य बुद्धि का परिहार कर एक बुद्धि से Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001276
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 1
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year1972
Total Pages720
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
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