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________________ विज्ञानाद्वैतवादः २४६ या प्रगृहीत है ? निर्व्यापार है कि सव्यापार है ? साकार है या कि निराकार है ? भिन्नकालवाला है या समकालवाला है ? किस रूप है - यदि गृहीत है तो स्वतः गृहीत है या परके द्वारा गृहीत है ? यदि वह स्वतः गृहीत है तो पदार्थ भी स्वतः गृहीत क्यों न माना जाय ? परसे गृहीत है ऐसा माना जाय तो अनवस्था दोष आता है, यदि गृहीत है तो दूसरे का ग्राहक नहीं बन सकता, निर्व्यापार होकर वह कुछ नहीं कर सकता तो वह दूसरे का ग्राहक कैसे बन सकता है, अर्थात् नहीं बन सकता । यदि वह सव्यापार है तो वह व्यापार उस श्रहं प्रत्यय से भिन्न है कि अभिन्न है ऐसी कई शंकाएँ होती हैं । निराकार यदि वह है तो वह पदार्थ का ग्राहक कैसे माना जा सकता है, साकार है तो बाह्य पदार्थ काहे को मानना । तात्पर्य यही है कि ज्ञान में ही सब कुछ है, भिन्नकाल में रहकर यदि वह ग्राहक होगा तो सारे प्राणी सर्वज्ञ बन जायेंगे | समकाल में रहकर वह ग्राहक होता है ऐसा माना जाय तो ज्ञान और पदार्थ दोनों ही एक दूसरे के ग्राहक बन जायेंगे । इस तरह श्रहं प्रत्यय की सिद्धि नहीं होती है, अतः बाह्यपदार्थ को ग्रहण करनेवाला कोई भी प्रमाण न होने से हम ज्ञानमात्र एकतत्व मानते हैं । उत्तरपक्ष - जैन —यह सारा विज्ञानतत्त्व का वर्णन बन्ध्यापुत्र के सौभाग्य के वर्णन की तरह निस्सार है । ज्ञानमात्र ही एकतत्त्व है इस बात को आप किस प्रमाण से सिद्ध करते हैं ? प्रत्यक्ष प्रमाण तो बाह्य पदार्थ के प्रभाव को सिद्ध करता नहीं है, क्योंकि यह तो बाह्य पदार्थ का साधक बतलाने वाला है । अनुमान से भी बाह्य पदार्थ का प्रभाव सिद्ध नहीं होता, क्योंकि जो बात प्रत्यक्ष से बाधित हो गई है उसमें अनुमान प्रवृत्त होगा तो वह बाधित पक्षवाला अनुमान हो जावेगा । पदार्थ और ज्ञान एक साथ उपलब्ध होते हैं इसलिये दोनों एक हैं ऐसा यदि माना जाता है तो वह भी गलत है, क्योंकि यह नियम है नहीं कि पदार्थ और ज्ञान एक साथ ही हों । देखोनीलादि पदार्थ नहीं हैं तो भी अन्तरङ्ग में सुखादिरूप ज्ञानका अस्तित्व पाया जाता है । जो साथ हो वह एक हो ऐसी व्याप्ति भी नहीं है, देखा जाता है कि रूप और प्रकाश साथ हैं किन्तु वे एक तो नहीं हैं । सर्वज्ञ का ज्ञान और ज्ञेय एक साथ होने से क्या वे एकमेक हो जावेंगे ? अर्थात् नहीं । प्रापने बड़े ही जोश में श्राकर जो अहं प्रत्ययका निराकरण किया है सो वह ठीक नहीं है, क्योंकि इस ग्रहं प्रत्यय से आप छुटकारा नहीं पा सकते हैं, "मैं ज्ञानमात्र तत्व को मानता हूं" ऐसा आप मानते हैं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001276
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 1
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year1972
Total Pages720
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
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