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________________ २३८ प्रमेयकमलमार्तण्डे व्यवहारेण कार्यकारणभावो न परमार्थतस्तेनायमदोषः; तहि तेनै वाहमहमिकया प्रतीयमानेन ज्ञानेन नीलादेग्रहणसिद्धः कथमसिद्धः स्वतोऽवभासमानत्वलक्षणो हेतुर्न स्यात् ? । न चैवंवादिनः स्वरूपस्य स्वतोऽवगतिर्घटते; समकालस्यास्य प्रतिपत्तावर्थवत् प्रसङ्गात् । न च स्वरूपस्य ज्ञानतादात्म्यान्नायं दोषः; तादात्म्येपि समानेतरकालविकल्पानतिवृत्त: । ननु ज्ञानमेव स्वरूपम्, तत्कथं तत्र भेदभावी विकल्पोऽवतरतीति चेत् ? कुत एतत् ? तथा प्रतीतेश्चत् ; समाधान- ठीक है, ऐसी ही बात ज्ञान में भी है, अर्थात् ज्ञान भी एक स्वभाववाला है और वह संकर व्यतिकर किये बिना स्व और पर को ग्रहण करने वाला होता है, क्योंकि उन्हें ग्रहण करने का ऐसा ही उसका एक स्वभाव है। शंका-हम बौद्धों के यहां जो कार्यकारणभाव माना गया है वह मात्र व्यवहार रूप है; पारमार्थिक नहीं, इसलिये हम पर कोई दूषण नहीं पाता है। समाधान-तो अहमहमिका रूप से अनुभव में आने वाले ज्ञान के द्वारा ही नील पीतादि पदार्थों का ग्रहण सिद्ध हो जायगा, अतः स्वतः अवभासमानत्वहेतु प्रसिद्ध क्यों नहीं होगा अवश्य ही होगा, इस प्रकार आपने जो अद्वैत को सिद्ध करने के लिये "पदार्थ में स्वतः अवभासमानता है इसलिये वे ज्ञान स्वरूप हैं" ऐसा कहा है सो वह सिद्ध नहीं होता है, क्योंकि पदार्थों का अवभासन स्वत: न होकर ज्ञान से ही होता है। __ बौद्धों ने जो ऐसा पूछा था कि समकालीन पदार्थ ग्राह्य होते हैं कि भिन्न कालीन ? इत्यादि, सो इस पर हमारा ऐसा कहना है कि इस प्रकार के प्रश्न आप करेंगे तो ज्ञान स्वरूप की स्वत: प्रतीति होती है इत्यादि कथन कैसे घटित होगा, क्योंकि उसमें भी प्रश्न होंगे- कि ज्ञान समकालोन उस स्वरूप को ग्रहण करता है तो भिन्न देशवर्ती स्वरूप को भी ग्रहण करेगा इत्यादि पदार्थ ग्रहण के सम्बन्ध में जो प्रश्न और दोष उपस्थित हुए थे वे सारे के सारे यहां उपस्थित हो जावेंगे, यदि आप कहें कि स्वरूप और ज्ञान का तो तादात्म्य है, अतः वहां दोष नहीं आते सो भी बात नहीं, क्योंकि तादात्म्य पक्ष में समानकाल और भिन्नकाल वाले प्रश्न-विकल्प उठते ही हैं। शंका- जब ज्ञान ही स्वरूप है तब भेद से होनेवाला विकल्प वहां पर किस प्रकार अवतरित हो सकता है । समाधान-यह बताओ कि किस प्रमाण से आपने यह निश्चित किया है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001276
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 1
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year1972
Total Pages720
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
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