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________________ २२८ प्रमेयकमलमार्तण्डे प्राणिमात्रस्याशेषज्ञत्वप्रसङ्गात् । नापि समकालः; समसमयभाविनोनिज्ञेययोः प्रतिबन्धाभावतो ग्राह्यग्राहकभावासम्भवात् । अन्यथाऽर्थोपि ज्ञानस्य ग्राहकः । अथार्थे प्राह्यताप्रतीते: स च ग्राह्यः न ज्ञानम् ; न; तद्व्यतिरेकेणास्याः प्रतीत्यभावात् । स्वरूपस्य च ग्राह्यत्वे-ज्ञानेपि तदस्तीति तत्रापि ग्राह्यता भवेत् । अथ जडत्वान्नार्थो ज्ञानग्राहकः; ननु कुतोऽस्य जडत्वसिद्धिः ? तदग्राहकत्वाच्चेदन्योन्याश्रयः-सिद्ध हि जडत्वे तदग्राहकत्वसिद्धिः, ततश्च जडत्वसिद्धिरिति । अथ गृहो तिकरणादर्थस्य ज्ञानं प्राहकम्, ननु साऽर्थादर्थान्तरम्, अनर्थान्तरं वा तेन क्रियते ? अर्थान्तरत्वे अर्थस्य न है, यदि समान समयवर्ती ज्ञान पदार्थ का ग्राहक है ऐसा माना जाय तो ज्ञान ही पदार्थ का ग्राहक क्यों, पदार्थ भी ज्ञान का ग्राहक हो सकता है। भावार्थ-हम बौद्धों ने ज्ञान में और पदार्थ में तदुत्पत्ति संबंध माना है, ज्ञान पदार्थ से उत्पन्न होता है, फिर वह पदार्थ के आकार होता है-पदार्थ के आकार को धारण करता है तथा उसी को जानता है ऐसा माना गया है, जैन ऐसा नहीं मानते, अतः उनके यहां पदार्थ ही ज्ञान के द्वारा ग्राह्य है ऐसा नियम नहीं बनता, वे समकालीन ज्ञान को ही पदार्थों का ग्राहक होना बतलाते हैं, अत: उनके यहां दोष आते हैं । जैन यदि कहें कि पदार्थों में ही ग्राह्यता प्रतीत होती है अतः उसे ही ग्राह्य माना है ज्ञान को नहीं सो यह बात हमें जचती नहीं क्योंकि ज्ञान के बिना तो ग्राह्यता प्रतीत ही नहीं हो सकती है, यदि पदार्थ के स्वरूप को ग्राह्य मानोगे तो भी गलत होगा, क्योंकि स्वरूप तो ज्ञान में भी है, अत: फिर वही दोष आवेगा कि ज्ञान भी ग्राह्य बन जावेगा। शंका-पदार्थ जड़ है अतः वह ज्ञान का ग्राहक बन नहीं सकता है । समाधान-पदार्थ जड़ है इस बात की सिद्धि आप कैसे करते हैं ? यदि कहो कि ज्ञान का वह ग्राहक नहीं होता है इसी से वह जड़ है, ऐसा सिद्ध होता है सो ऐसे कहने से तो स्पष्ट रूप से अन्योन्याश्रय दोष दिख रहा है क्योंकि पदार्थ में जड़पने की सिद्धि हो तब उसमें ज्ञान की ग्राहकता नहीं है यह सिद्धि हो और ज्ञान का अग्राहकपना सिद्ध होने पर उसमें जड़त्व है इसकी सिद्धि हो, इस प्रकार से दोनों में से एक भी सिद्ध नहीं हो सकेगा। यदि कहा जाय कि ज्ञान गृहीति क्रिया का कारण है अत: वही पदार्थ का ग्राहक है अर्थात् करणज्ञान के द्वारा पदार्थ ग्रहण होता है अथवा "ज्ञानेन पदार्थो गृह्यन्ते” इस प्रकार से ग्रहण क्रिया का करण ज्ञान Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001276
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 1
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year1972
Total Pages720
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
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