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________________ [ २० ] भूतचैतन्यवाद- भूतचतुष्टय ( पृथ्वी, जल, वायु, अग्नि ) से जीव पैदा होता है और उसमें ज्ञान रहता है । अर्थात् ज्ञान पृथ्वी आदि जड़ तत्त्वों का ही कार्य है । उन्हीं से जीव सहित शरीरादिक उत्पन्न हुमा करते हैं ऐसा चार्वाकका कहना है । ज्ञानपरोक्षवाद-ज्ञान सर्वथा परोक्ष रहता है । सिर्फ उसके द्वारा जाने हुए पदार्थ साक्षात् होते हैं । इस प्रकार भाट्ट मीमांसक कहते हैं । प्रात्मपरोक्षवाद-प्रभाकर नामा मीमांसक ज्ञान के साथ-साथ प्रात्मा को भी अर्थात् करणस्वरूपज्ञाम और कर्तारूप आत्मा इन दोनों को सर्वथा परोक्ष मानते हैं अतः ये प्रात्मपरोक्षवादी कहलाते हैं। ज्ञानांतरवेद्यज्ञानवाद-नैयायिक ज्ञानको अन्यज्ञानके द्वारा जानने योग्य बतलाते हैं । पदार्थों को जाननेवाला ज्ञान है और उसको जाननेवाला दूसराज्ञान है । क्योंकि अपने आपमें क्रिया नहीं होती एवं एक ज्ञान एकही वस्तुको जान सकता है ऐसा इनका हटाग्रह है । प्रामाण्यवाद-प्रमाणमें प्रामाण्य ( सचाई ) एकांत से स्वत: ही पाती है ऐसा मीमांसक प्रतिपादन करते हैं । इसका सुविस्तृत पूर्व पक्ष सहित विवेचन विंशतितम प्रकरण में होकर प्रथम परिच्छेद समाप्त होता है। प्रत्यक्षक प्रमाणवाद - चार्वाक के प्रत्यक्षमात्र को प्रमाण मानने का खंडन इस प्रकरण प्रमेय द्वविध्यवाद -स्वलक्षण और सामान्य इस प्रकार दो प्रकार का प्रमेय है । अतः उनको जानने वाले प्रमाण में भेद हुआ है । स्वलक्षण को प्रत्यक्ष और सामान्य को अनुमान विषय करता है ऐसा बौद्ध कहते हैं । प्रमाणसंख्याविवाद-जब बौद्ध ने दो प्रमाणों का प्रतिपादन किया तब नैयायिक मीमांसक अपने उपमान आदि प्रमाणों का विवेचन करते हैं और बौद्ध के प्रत्यक्ष और अनुमान इस प्रकार की प्रमाण संख्या का विघटन कर टालते हैं। अर्थापत्ति प्रादि का वर्णन-इस प्रकरण में मीमांसक ने अपने मीमांसा श्लोकवार्तिक ग्रन्थ के आधार से अर्थापत्ति, उपमा और प्रभाव प्रमाण का वर्णन करके इनको पृथक प्रमाण सिद्ध करने का असफल प्रयत्न किया है। ___ शक्तिस्वरूपविचार-नैयायिक पदार्थों में अतीन्द्रियशक्तिको नहीं मानते अतः इसका पूर्व पक्ष सहित कथन करके द्रव्य शक्ति और पर्याय शक्ति का बहुत ही अधिक महत्त्वशाली वर्णन इस प्रकरण में पाया जाता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001276
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 1
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year1972
Total Pages720
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
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