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ब्रह्माद्वैतवादः
ननु चोक्तलक्षणाऽपूर्वार्थव्यवसायात्मकं ज्ञानं प्रमाण मित्ययुक्तमुक्तम् ; अर्थव्यवसायात्मकज्ञानस्य मिथ्यारूपतया प्रमाणत्वायोगात्, परमात्मस्वरूपग्राहकर यैव ज्ञानस्य सत्यत्वप्रसिद्धः। अक्षसन्निपातानन्तरोत्थाऽविकल्पक प्रत्यक्षेण हि सर्वत्रैकत्वमेवाऽन्यानपेक्षतया झगिति प्रतीयते इति तदेव वस्तुत्वस्वरूपम् । भेद। पुनरविद्यासंकेतस्मरणजनितविकल्पप्रतीत्याऽन्याऽपेक्षतया प्रतीयते इत्यसो नार्थस्वरूपम् । तथा, यत्प्रतिभासते तत्प्रतिभासान्तःप्रविष्टमेव यथा प्रतिभासस्वरूपम्, प्रतिभासते
ब्रह्माद्वैत-जो जैन के कहे हुए अपूर्वार्थ और व्यवसायात्मक प्रमाण के विशेषण हैं वे प्रयुक्त हैं, क्योंकि पदार्थ का व्यवसाय करनेवाला ज्ञान मिथ्यारूप होता है, इसलिये उसमें प्रमाणता का योग नहीं बैठता है, जो ज्ञान परमात्मस्वरूप का-परमब्रह्म का ग्राहक-निश्चय करनेवाला होता है उसीमें सत्यता की प्रसिद्धि है, आंख के खोलते ही-अर्थात् दृष्टि विषय पर पड़ते ही निर्विकल्पक प्रत्यक्ष होता है, उस निर्विकल्प प्रत्यक्ष के द्वारा सर्वत्र एकत्व का भान, विना किसी भेदप्रतीति के शीघ्रातिशीघ्र जो होता है वही वस्तुका स्वरूप है, भेद जो प्रतीत होता है वह तो अविद्या, संकेत, स्मरण
आदि से उत्पन्न होता है और उससे विकल्प (भेद) उत्पन्न होकर घट पट आदि भिन्न भिन्न पदार्थ मालूम पड़ते हैं, इसलिये भेद वस्तु का स्वरूप नहीं है, इस प्रकार प्रत्यक्ष प्रमाण के द्वारा अखंड परम ब्रह्म सिद्ध होता है, अनुमानप्रमाण के द्वारा भी अखंड ब्रह्म की सिद्धि इस प्रकार से होती है-"जो प्रतिभसित होता है वह प्रतिभास के भीतर सामिल है प्रतिभासित होने से जैसा कि प्रतिभासका स्वरूप प्रतिभासित होता है अतः वह प्रतिभास के भीतर सामिल है, इसीतरह चेतन अचेतन सभी वस्तु प्रति भासित होती हैं अतः वे सभी प्रतिभास के अन्दर प्रविष्ट हैं । इस अनुमानके द्वारा आत्माद्वैत-ब्रह्माद्वैत सिद्ध होता है । इस अनुमान में प्रयुक्त प्रतिभासमानत्व हेतु प्रसिद्ध
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