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________________ स्मृतिप्रमोषविचारः विपर्ययज्ञानके विवादका सारांश विपर्यय ज्ञानका क्या स्वरूप है इस पर चार्वाक आदि वादियोंका विवाद है, चार्वाक अख्याति-अर्थात् विपर्यय ज्ञानका विषय कुछ भी नहीं मानते । बौद्ध के चार भेदोंमें से जो माध्यमिक और सौत्रांतिक हैं वे असत् ख्याति अर्थात् आकाश कुसुम सदृश प्रतिभासका अभाव होना इसीको विपर्यय कहते हैं । सांख्यादिक प्रसिद्धार्थ ख्याति-अर्थात् सत्य पदार्थकी झलकको विपर्यय ज्ञान कहते हैं । योगाचार विज्ञानाद्वैत वादी आदि आत्म ख्यातिको अर्थात ज्ञानके आकार को विपर्यय मानते हैं । अनिर्वचनीयार्थख्याति-अर्थात् सत असत कुछ कहने में न आना विपर्यय है ऐसा वेदान्ति आदि मानते हैं। स्मृतिप्रमोषको विपर्यय प्रभाकर (मीमांसक) मानते हैं । अब यहां पर सर्व प्रथम चार्वाककी अख्यातिका विचार करते हैं-उनका कहना है कि जलादिका जो विपरीत ज्ञान होता है उसका विषय न जल है और न जलका प्रभाव है तथा मरीचि ही है, इसलिये यह ज्ञान निविषय निरालंब है। मतलब इस ज्ञानका विषय जल है ऐसा माने तो वह है नहीं, जलका अभाव विषय है ऐसा माने तो वह प्रतीतिमें क्यों नहीं पाता ? यदि कोई कहे कि जलाकारसे मरीचिका ग्रहण होना यही इस विपर्ययका विषय है, सो यह गलत है। जलसे तो मरीचि भिन्न है, उसके द्वारा मरीचिका का ग्रहण कैसे होगा ? यदि होगा तो घटाकारसे पटका ग्रहण हो जाना चाहिये ? आचार्यने चार्वाक के इस मतका एक ही बात कहकर खण्डन कर दिया है कि यदि विपर्यय ज्ञानका विषय कुछ भी नहीं होता तो "जल ज्ञान" इत्यादि विशेष व्यपदेश नहीं होता भ्रान्त और निद्रित इन दोनों अवस्थाओं में समानताका प्रसंग भी प्राता है। बौद्ध-इस विपर्यय ज्ञानमें प्रतिभासित अर्थ विचार करनेपर सत रूप नहीं दिखता, अतः यह असत् ख्याति ही है। सीपमें सीपका प्रतिभास होता नहीं और रजतका प्रतिभास होता है किन्तु वह है नहीं बस ! यही असत् ख्याति हुयी ? सांख्य-यह असत ख्याति ही असत है, यदि विपर्यय ज्ञानका विषय असत होता तो आकाश पुष्प की तरह उसका प्रतिभास ही नहीं होता, बौद्ध के यहां अद्वैतवाद मान्य होनेसे इस विपर्यय को अनेकाकार रूप भ्रान्त ज्ञान भी नहीं मान सकते। इस प्रकार सांख्यने बीचमें ही बौद्धका खण्डन किया है, और अपनी प्रसिद्धार्थ ख्याति Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001276
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 1
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year1972
Total Pages720
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
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