SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 206
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ स्मृतिप्रमोषविचारः स्यात्; दोषवशात्पुरो व्यवस्थितार्थे रजताकारस्य प्रतिभासनात् । कथमन्यथा भवतोऽपि तद्रजतमिति प्रतिभासो न स्यात् ? ततो यथा तव स्मृतिप्रमोषस्तथा दोषेभ्यः सामानाधिकरण्येन पुरोवर्त्तिन्यवर्तमानरजताकारावभासः किन्न स्यात् ? अनेन 'तत्संसर्गः सन्नसन्वा प्रतिभासते' इत्यपि निरस्तम् । नच विवेकाऽख्या तिसहायाद्रजतज्ञानात् प्रवृत्तिर्घटते; 'घटोयम्' इत्याद्यभेदज्ञानात्प्रवृत्तिप्रतीतेः । विवेकाख्यातिश्च भेदे सिद्ध े सिद्ध्येत् । न चात्र ज्ञानभेदः कुतश्चित् सिद्धः, तथापि तत्कल्पने 'घटोयम्' द्वारा किये गये सत प्रतिभासित होता है या असत प्रतिभासित होता है ? इत्यादि पूर्व प्रश्नोंका निरसन स्वयमेव हो जाता है । प्रभाकर ने कहा था कि विवेक का ग्रहण न होने से अर्थात् " यह रजत है" इसतरह की झलकमें दो ज्ञान हैं किन्तु उसका भेद मालूम न पड़ने से जो ज्ञान होता है कि "यह रजत है" सो इस ज्ञानके कारण सीपमें चांदी समझकर उसे ग्रहण करने के लिए प्रवृत्ति होती है । सो प्रभाकर का यह कहना गलत है. देखो ! "यह घट है" इत्यादि जो ज्ञान हैं वे भी अभेद को लिए हुए हैं उन ज्ञानोंसे घटादि को ग्रहण करने के लिए मनुष्य की प्रवृत्ति हुआ ही करती है, आप प्रभाकर की यह विवेक प्रख्याति - अर्थात् भेदोंका अग्रहण तब सिद्ध होगा जब यह रजत है, इस ज्ञानमें भेद सिद्ध हो ! मतलब " यह इस प्रकारका प्रत्यक्षज्ञान, और "रजत है" इस प्रकारका स्मरण ज्ञान ऐसे ये दो भेद यहां सिद्ध होते हों तब तो भेदों का यहां अग्रहरण है, इस प्रकार कह सकते हैं, किन्तु किसी भी प्रमाण से "यह रजत है" इस ज्ञानमें दो ज्ञानों की झलक सिद्ध नहीं होती है यदि ज्ञानों में भेद सिद्ध नहीं होनेपर भी जबरदस्ती भेदकी कल्पना करो तो "यह घट है" इस ज्ञानमें भी भेद मानना पड़ेगा ? क्योंकि पूर्व मान्यता में और इस मान्यता में कोई विशेषता नहीं है, जिससे कि "यह घट है " इस ज्ञानमें तो भेद न माना जाय और "यह चांदी है" इस ज्ञानमें भेद न माना जाय । १५५ प्रभाकर - "यह घट है" इस ज्ञानमें तो सत्य घटका ग्रहण होता है अतः यहां पर ज्ञानमें भेद नहीं माना गया है ? जैन - तो फिर अन्य जगह भी अर्थात् " यह रजत है" इस ज्ञानमें भी असत्य वस्तुका [ चांदीका ] ग्रहण हुआ है इसलिये यहांपर भी ज्ञानके भेदकी कल्पना नहीं होनी चाहिये । एक बात यह सिद्ध करना है कि आप प्रभाकर निर्मलता आदि गुणों से युक्त नेत्र आदि इन्द्रियों द्वारा वर्त्तमान वस्तुमें एक ज्ञान पैदा होता है ऐसा मानते हैं, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001276
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 1
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year1972
Total Pages720
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy