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________________ शब्दाढतविचार: योगिन एव तत्पश्यन्तीत्युक्तम् ; तदप्युक्तिमात्रम् ; न हि तद्व्यतिरेकेणान्ये योगिनो वस्तुभूताः सन्ति येन 'ते पश्यन्ति' इत्युच्येत । यदि च तज्ज्ञाने तस्य व्यापारः स्यात्तदा योगिनस्तस्य रूपं पश्यन्ति' इति स्यात् । यावतोक्तप्रकारेण कार्य व्यापार एवास्य न संगच्छते । अविद्यायाश्च तद्व्यतिरेकेणासभवात्कथं भेदप्रतिभासहेतुत्वम् ? आकाशे च वितथप्रतिभासहेतुभूतं वास्तवमेवास्ति तिमिरम् इति न दृष्टान्तदाष्टान्तिकयोः (साम्यम्)। नाप्यनुमानतस्तत्प्रतिपत्तिः; अनुमानं हि कार्यलिङ्ग वा भवेत्, स्वभावादिलिङ्ग वा ? अनुपलब्धेविधिसाधिकत्वेनानभ्युपगमात् । तत्र न तावत्कार्यलिङ्गम् ; नित्यैकस्वभावात्ततः कार्योत्पत्तिप्रति अविद्या के कारण जन उस शब्दब्रह्म को भेद रूपवाला देखता है-सो शब्दब्रह्म के सिवाय अविद्या का अस्तित्व ही सिद्ध नहीं होता, तो फिर वह भेद प्रतीति का कारण कैसे बन सकती है, आकाश दृष्टान्त भी यहां जचता नहीं, क्योंकि आकाश में असत् प्रतिभास का कारण जो तिमिर है वह तो वास्तविक वस्तु है, अतः दृष्टान्त और दान्ति में-तिमिर और अविद्या में समानता नहीं है। अनुमान के द्वारा भी शब्दब्रह्म की सिद्धि नहीं होती है, क्योंकि जिस अनुमान से आप शब्दब्रह्म की सिद्धि करना चाहते हो वह कार्यलिङ्ग वाला अनुमान है ? या स्वभाव आदि लिङ्गवाला अनुमान है, अर्थात् जिस अनुमान से प्राप शब्दब्रह्म की सिद्धि करोगे उसमें हेतु कार्यरूप होगा ? या स्वभावादिरूप होगा ? अनुपलब्धिरूप हेतु तो हो नहीं सकता, क्योंकि आपके यहां उसे विधि साधक माना नहीं गया है, अब यहां यदि ऐसा कहा जावे कि कार्य हेतुवाला अनुमान शब्दब्रह्म का साधक हो जावेगातो वह यहां बनता नहीं है, क्योंकि नित्य एक स्वभाव वाले उस शब्दब्रह्म से घट-पटादि कार्यों की उत्पत्ति होने का प्रतिषेध ही कर दिया है, अतः जब उसका कोई कार्य ही नहीं है तो हेतुकोटि में उसे कैसे रखा जावे-हां उसका कोई कार्य होता तो उसे हेतुकोटि में रखा जा सकता और कार्यलिङ्गक उस अनुमान से शब्दब्रह्म की सिद्धि करते, मतलब इसका यह है कि नित्य शब्दब्रह्म के द्वारा क्रम से या एक साथ अक्रम से-दोनों प्रकार से अर्थक्रिया-कार्यकी निष्पत्ति हो नहीं सकती है, स्वभाव हेतुवाला अनुमान भी शब्दब्रह्म की सिद्धि नहीं करता है, क्योंकि अभी तो धर्मी रूप शब्दब्रह्म ही प्रसिद्ध है, धर्मी के असिद्ध होनेपर उसका स्वभावभूत धर्म स्वतंत्र रूप से सिद्ध नहीं हो सकता। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001276
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 1
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year1972
Total Pages720
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
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