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________________ शब्दाद्वैतविचारः पिशब्दाद्वतवादिनो निखिलप्रत्ययानां शब्दानुविद्धत्वेनैव सविकल्पकत्वं मन्यन्ते तत्स्पर्श कये हि तेषां प्रकाशरूपताया एवाभावप्रसङ्गः । वाग्रूपता हि शाश्वती प्रत्यवमशिनी च । तदभावे प्रत्ययानां नापरं रूपमवशिष्यते । सकलं चेदं वाच्यवाचकतत्त्वं शब्दब्रह्मरण एव विवर्तो नान्यविवर्तो नापि स्वतन्त्रमिति । तदुक्तम् न सोस्ति प्रत्ययो लोके यः शब्दानुगमादृते । अनुविद्धमिवाभाति सर्वं शब्दे प्रतिष्ठितम् ॥ १ ॥ Jain Education International ** वाग्रूपता चेदुत्क्रामेदवबोधस्य शाश्वती । न प्रकाशः प्रकाशेत सा हि प्रत्यवर्माशनी ।। २ ॥ [ वाक्यप० १।१२४ ] शब्दाद्वैतवादी जो भर्तृहरि आदि हैं उनका ऐसा मन्तव्य है कि जितने भी ज्ञान हैं उनका शब्दके साथ तादात्म्य संबंध है, इसीलिये वे सविकल्प हैं, यदि इनमें शब्दानुविद्धता न हो - शब्द संस्पर्श से ये विकल हों तो ज्ञानों में प्रकाशरूपता का - वस्तुस्वरूप के प्रकाशन करने का अभाव होगा, वचन सदा से ज्ञान के कारण होते चले आ रहे हैं, यदि ज्ञान में शब्द संस्पर्शित्व न माना जावे तो ज्ञान का अपना निजरूप कुछ बचता ही नहीं है, जितना भी यह वाच्यवाचकतत्व है वह सब शब्दरूप ब्रह्म की ही पर्याय है और किसी की नहीं, न यह कोई स्वतन्त्र पदार्थ है । कहा भी है- “न सो ऽस्ति प्रत्ययो लोके" - इत्यादि वाक्य प० १/१२४ ऐसा कोई ज्ञान नहीं है जो शब्द के अनुगम के बिना हो, सारा यह जगत् शब्द के द्वारा अनुविद्ध सा हो रहा है, समस्त विश्व शब्द ब्रह्म में प्रतिष्ठित है” ||१|| For Private & Personal Use Only [ वाक्यप० ११२५ ] ज्ञान में प्रव्यभिचरित रूप से रहनेवाली शाश्वती वाग्रूपता का यदि ज्ञान में से उल्लंघन हो जाता है तो ज्ञान का अस्तित्व ही नहीं रह सकता, क्योंकि वह वाग्रूपता–शब्दब्रह्म ज्ञान से संबंधित होकर रहती है ॥ २ ॥ www.jainelibrary.org
SR No.001276
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 1
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year1972
Total Pages720
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
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