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बौद्धाभिमतनिविकल्पकप्रत्यक्षस्य खंडनम्
११३ उत्पन्न होता है न कि निर्विकल्प से ? इस कथन से तो बौद्ध का शास्त्र गलत ठहरता है। वहां तो लिखा है
___ “यत्रैव जनये देनां तत्रैवास्य प्रमाणता" __जिस विषय में निर्विकल्प के द्वारा विकल्प बुद्धि उत्पन्न की जाती है उसी विषय में उस निर्विकल्प को प्रमाण माना है ( सब जगह नहीं ) इस प्रकार बौद्ध निर्विकल्प को विकल्पोत्पादक भी नहीं कह सकते और न विकल्प का अनुत्पादक ही । सबसे बड़ी आश्चर्य की बात तो यह है कि जिसकी प्रतीति नहीं, झलक नहीं, कुछ भी नहीं उस निर्विकल्प को तो प्रमाण माना, और जिसकी प्रतीति आती है उस विकल्प को अप्रमाण कहते हो । आचार्य ने, “विकल्प में प्रमाणता क्यों नहीं" इस बारे में ग्यारह प्रश्न-माला उठा कर अच्छी तरह यह सिद्ध किया है कि सब प्रकार से विकल्प ही प्रमाण है निर्विकल्प नहीं । विकल्प का स्वरूप यही है कि प्रतिबंधक कर्म का प्रभाव अर्थात् क्षयोपशम होना मतलब आत्मा में ज्ञानावरण का क्षयोपशम हो जाने से सविकल्प ज्ञान उत्पन्न होता है और वह पदार्थ का निश्चय कराता है ऐसा बौद्ध को मानना चाहिए । निर्विकल्प के द्वारा न लौकिक कार्य की सिद्धि है और न पारमार्थिक कार्य की सिद्धि है क्योंकि वह कुछ पदार्थ का निर्णय या दिग्दर्शन, प्रतीति कराता ही नहीं । इसलिए लोक व्यवहार तथा मोक्षादि पुरुषार्थ की सिद्धि जिस ज्ञान के द्वारा हो उसी ज्ञान को स्वीकार करना चाहिए । व्यर्थ ही निर्विकल्प सविकल्प आदि की कल्पना से मात्र तुम बौद्ध निर्विकल्प हो जायो ।
* निर्विकल्प प्रत्यक्ष का सारांश समाप्त *
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