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________________ बौद्धाभिमतनिर्विकल्पकप्रत्यक्षस्य खंडनम् हि अवग्रहेहावायज्ञानादनभ्यासात्मकाद् अन्यदेवाभ्यासात्मकं धारणाज्ञानं प्रत्यक्षम् । तदभावे परोपन्यस्तसकलवर्णादिषु अवग्रहादित्रयसद्भावेपि स्मृत्यनुत्पत्तिः तत्सद्भावे तु स्यादेव-सर्वत्र यथासंस्कारं स्मृत्युत्पत्त्यभ्युपगमात् । न च परेषामप्ययं युक्तः-दर्शनभेदाभावात्, एकस्यैव क्वचिदभ्यासादीनामितरेषां वानभ्युपगमात् । न च तदन्यव्यावृत्त्या तत्र तद्योगः; स्वयमतत्स्वभावस्य तदन्यव्यावृत्तिसम्भवे पावकस्याऽशीतत्वादिव्यावृत्तिप्रसङ्गात् । तत्स्वभावस्य तु तदन्यव्यावृत्तिकल्पने-फलाभावात्प्रतिनियलतत्स्वभावस्यवान्यव्यावृत्तिरूपत्वात् । ___ स्यान्मतम् अभ्यासादिसापेक्षं निरपेक्षं वा दर्शनं विकल्पस्य नोत्पादकम् शब्दार्थविकल्प दोष आवेगा, उनके यहां भी वर्ण, पद आदि का तथा उच्छ्वास, लव, स्तोक आदि संख्या का समान रूप से ही स्मृति के आने का प्रसंग आता है । जैन-हमारे यहां ऐसा प्रसंग नहीं आवेगा क्योंकि हमने अात्मादि अंतरंग पदार्थ तथा जड़ पुद्गल आदि बहिरंग पदार्थ इन सभी को सर्वथा एक स्वभाव वाले नहीं माने हैं । तथा हमारे यहां तो अवग्रह, ईहा, अवाय ज्ञानों को अनभ्यासरूप माना है, इनसे भिन्न अभ्यास स्वभाव वाला धारणा नामक प्रत्यक्ष ज्ञान है । जब वह धारणा ज्ञान नहीं होता तब सकल वर्ण पदादिका तोनों अवग्रहादि होने पर भी उनकी स्मृति नहीं होती है । हां यदि धारणा ज्ञान है तो सभी पदार्थों में यथा संस्कार स्मरण होता ही है । लेकिन ऐसी व्यवस्था तुम बौद्ध के यहां नहीं बनती है, अर्थात् निर्विकल्प दर्शन, नीलादि में तो विकल्प उत्पन्न करे और क्षण-क्षयादि में नहीं-ऐसा सिद्ध नहीं होता, क्योंकि तुम्हारे यहां निर्विकल्प दर्शन में भेद नहीं माने हैं, जैसे कि हमारे यहां अवग्रह, ईहा आदि में भेद माने हैं । एक में ही कहीं नीलादि में तो अभ्यास हो और कहीं क्षण-क्षयादि में न हो ऐसा भेद आप मानते नहीं। उस निर्विकल्प दर्शन में उस अभ्यास को अन्य से हटा करके उस नीलादि में ही अभ्यास का योग करा देना ऐसी विशेषता नहीं है, क्योंकि वह स्वयं अभ्यास और अनभ्यास स्वभाव से रहित है, इस तरह अतत् स्वभावी होकर भी उनमें अन्य की व्यावृत्ति रूप विशेषता माने तो अग्नि में अशीतत्व ( उष्णत्व ) की व्यावृत्ति माननी पड़ेगी। हां यदि आप बौद्ध उस दर्शन में अभ्यास, अनभ्यास रूप स्वभाव स्वरूप से ही है ऐसा स्वीकार करते हो तो फिर उसको अन्य व्यावृत्ति की क्या आवश्यकता है ? हर वस्तु के प्रति नियत स्वभाव, खुद ही अन्य वस्तुओं से व्यावृत्ति रूप ही होते हैं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001276
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 1
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year1972
Total Pages720
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
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