SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 146
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ बौद्धाभिमतििवकल्पकप्रत्यक्षस्य खंडनम् न चाविषयीकृतस्यान्यत्रारोपः। न ह्यप्रतिपन्नरजत: शुक्तिकायां रजतमारोपयति । ज्ञानान्तरं तु निर्विकल्पकम्, सविकल्पकं वा ? उभयत्राप्युभयदोषानुषङ्गतस्तदुभयविषयत्वायोगः । तदन्यतरविषयेणानयोरेकत्वाध्यवसाये-अतिप्रसङ्ग:-अक्षज्ञानेन त्रिविप्रकृष्टेतरयोरप्येकत्वाध्यवसायप्रसङ्गात् । तन्न तयोरेकत्वाध्यवसायाद्विकल्पे वैशद्यप्रतीतिः, अविकल्पकस्याने वैकत्वाध्यवसायस्य चोक्तन्यायेनाप्रसिद्धत्वात् । यच्चोच्यते-संहृतसकलविकल्पावस्थायां रूपादिदर्शनं निर्विकल्पकं प्रत्यक्षतोऽनुभूयते । तदुक्तम् उस असत्य विकल्प के द्वारा दब जाता है तो यह बहुत आश्चर्यकारी बात हो जाती है । इसी प्रकार बौद्ध यह भी नहीं बता पा रहे कि विकल्प के द्वारा निर्विकल्प ही क्यों दब जाता है। दोनों ज्ञान साथ हैं, इसलिए कि अभिन्न विषय वाले हैं अथवा अभिन्न सामग्री से पैदा हुए हैं इसलिए इन तीनों में से किसी भी हेतु के द्वारा निविकल्प का अभिभव होना सिद्ध नहीं होता है । अब यह बात बताओ कि इन विकल्प और निर्विकल्पों के एकत्व को निर्विक पक जानता है कि सविकल्पक ? अथवा तीसरा कोई ज्ञानान्तर ? निर्विकल्पक तो अध्यवसाय करता नहीं वह तो उससे बिल्कुल रहित है अन्यथा आपके उस निर्विकल्पक ज्ञान को भ्रांतपने का प्रसंग आता है जैसे कि नीलादि विकल्पों को आपने भ्रांतरूप माना है। विकल्प ज्ञान भी दोनों में एकत्वाध्यवसाय का निर्णय नहीं देता क्योंकि वह भी निर्विकल्प को जानता नहीं, यदि जानेगा तो उसे भी स्वलक्षण को जानने वाला मानना पड़ेगा। तथा च विकल्प प्रवस्तु में ज्ञान को उत्पन्न करता है ऐसा जो कहा है वह विरुद्ध होगा। बिना जाने अन्य का अन्य में आरोप भी कैसे करें । देखो-रजत को बिना जाने सीप में उसका आरोप कैसे हो सकता है, अर्थात् नहीं ? तीसरा पक्ष अर्थात् एक अन्य ही ज्ञान दोनों के सविकल्पक निर्विकल्पकों के एकत्व को जानता है ऐसा कहना भी ठीक नहीं है क्योंकि वह ज्ञानान्तर भी सविकल्प या निविकर प ही होगा । अतः दोनों पक्ष में पहले के वही दोष आवेंगे, क्योंकि वे दोनों ही आपस में एक दूसरे के विषयों को जानते ही नहीं हैं । बिना जाने एक किसी को विषय करके ही एकत्वाध्यवसाय करेंगे तो अतिप्रसङ्ग दोष आता है अर्थात् इन्द्रिय ज्ञान, दूर देश, दूर काल, दूर स्वभाव, वाले मेरु आदि पदार्थ में तथा निकटवर्ती घटादि पदार्थ में एकत्व का ज्ञान करने लगेंगे। क्योंकि जानने की जरूरत तो रही नहीं। इसलिए यह बात नहीं बनती कि उन विकल्प अवि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001276
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 1
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year1972
Total Pages720
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy