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ज्ञातृव्यापारविचारः
एतेन प्रभाकरोपि अर्थतथात्वप्रकाशको ज्ञातृव्यापारोऽज्ञानरूपोऽपि प्रमाणम्' इति प्रतिपादयन् प्रतिव्यूढः प्रतिपत्तव्यः; सर्वत्राज्ञानस्योपचारादेव प्रसिद्ध: । न च ज्ञातृव्यापारस्वरूपस्य किञ्चित्प्रमाणं ग्राहकम्-तद्धि प्रत्यक्षम्, अनुमानम्, अन्यद्वा ? यदि प्रत्यक्षम् ; तत्कि स्वसंवेदनम्, बाह्य न्द्रियजम्, मनःप्रभवं वा? न तावत्स्वसंवेदनम् ; तस्याज्ञाने विरोधादनभ्युपगमाच्च । नापि बाह्य न्द्रियजम् ; इन्द्रियाणां स्वसम्बद्ध ऽर्थे ज्ञानजनकत्वोपगमात् । न च ज्ञातृव्यापारेण सह तेषां सम्बन्धः; प्रतिनियतरूपादिविषयत्वात् । नापि मनोजन्यम् ; तथाप्रतीत्यभावादनभ्युपगमादतिप्रसङ्गाच्च । नाप्यनुमानम् ;
प्रभाकर का कथन है कि पदार्थ को जैसा का तैसा जानने रूप जो ज्ञाता का व्यापार है भले ही वह अज्ञान रूप हो प्रमाण है । सो प्रभाकर को इस मान्यता (प्रमाणता) का भी निराकरण उपर्युक्त सन्निकर्ष, इन्द्रियवृत्ति आदि के खंडन से हो जाता है ऐसा समझना चाहिये। क्योंकि इन सब मान्यताओं में अज्ञान को प्रमाण मान लिया है । ऐसों को तो प्रमाण उपचार से ही कह सकते हैं अन्यथा नहीं।
प्रभाकर के ज्ञाता के व्यापार रूप प्रमाण को ग्रहण करने वाला प्रमाण तो कोई है नहीं, यदि है तो वह कौनसा है ? प्रत्यक्ष या अनुमान, अथवा और कोई तीसरा ? यदि प्रत्यक्ष है तो वह कौनसा प्रत्यक्ष है-स्वसंवेदन प्रत्यक्ष या बाह्य इन्द्रिय प्रत्यक्ष अथवा मन: प्रत्यक्ष ? स्वसंवेदन प्रत्यक्ष अज्ञानरूप ज्ञातृव्यापार में प्रवृत्ति नहीं करता है, क्योंकि ऐसा मानने में विरोध है तथा आपने ऐसा माना भी नहीं है। बाह्य इन्द्रिय प्रत्यक्ष ज्ञाता के व्यापार को कैसे जानेगा-क्योंकि इन्द्रियां तो अपने से संबंधित पदार्थ में ज्ञान को पैदा करती हैं । ज्ञाता के व्यापार के साथ इन्द्रियों का संबंध हो नहीं सकता क्योंकि उनका तो अपना प्रतिनियत रूपादि विषयों में संबंध
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