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________________ इन्द्रियवृत्तिविचारः एतेनेन्द्रियवृत्तिः प्रमाणमित्यभिदधानः साङ्खयः प्रत्याख्यातः । ज्ञानस्वभाव मुख्यप्रमाणकरणत्वात् तत्राप्युपचारतः प्रमाणव्यवहाराभ्युपगमात् । न चेन्द्रियेभ्यो वृत्तिर्व्यतिरिक्ता, अव्यतिरिक्ता वा घटते । तेभ्योहि यद्यव्यतिरिक्तासौ; तदा श्रोत्रादिमात्रमेवासौ, तच्च सुप्ताद्यवस्थायामप्यस्तीति तदाप्यर्थपरिच्छित्तिप्रसक्तेः सुप्तादिव्यवहारोच्छेदः। अथ व्यतिरिक्ता; तदाप्यसौ किं तेषां धर्मः, अर्थान्तरं वा ? प्रथमपक्षे वृत्तः श्रोत्रादिभिः सह सम्बन्धो वक्तव्य:- स हि तादात्म्यम्, समवायादिर्वा स्यात् ? यदि तादात्म्यम् ; तदा श्रोत्रादिमात्रमेवासाविति पूर्वोक्त एव दोषोऽनुषज्यते । अथ समवायः; तदास्य व्यापिन: सम्भवे व्यापिश्रोत्रादिसद्भावे च । __ सांख्य मतवाले इन्द्रियवृत्ति को प्रमाण मानते हैं, सो उसका खंडन भी उसी सन्निकर्ष के खंडन से हो जाता है। क्योंकि ज्ञान स्वभाव वाली वस्तु ही मुख्य प्रमाण है । हां, उपचार से भले ही इसे भी प्रमाण कह दो, अच्छा- आप सांख्य यह बतावें कि इन्द्रियों की वृत्ति इन्द्रियों से भिन्न है या अभिन्न है ? दोनों तरह से वह बनती नहीं, क्योंकि वह वृत्ति यदि इन्द्रिय से अभिन्न है तो वह इन्द्रियरूप ही हो गई, सो ये इन्द्रियां तो निद्रादिरूप अवस्था में भी रहती हैं, तो फिर वहां भी ज्ञान होता रहेगा, ऐसी हालत में यह निद्रित है यह जाग्रत है यह लोकव्यवहार ही नहीं बनेगा, यदि इन्द्रियों से उनकी वृत्ति पृथक है तो क्या वह उनका धर्म है या और कोई चीज है ? यदि धर्म है, तो उस धर्म रूप वृत्ति का इन्द्रियों के साथ कौनसा संबंध है ? तादात्म्य संबंध है या समवाय सम्बन्ध है ? यदि तादात्म्य है तो वृत्ति और इन्द्रियां एक ही हो गई सो उसमें वही सुप्तादि का अभाव होना रूप दोष आता है, यदि इन्द्रिय और वृत्ति का समवाय संबंध है सो श्रोत्रादिक इन्द्रिय और समवाय इन दोनों के व्यापक होने से आपका सिद्धान्त सदोष बन जाता है, क्योंकि आपके यहां लिखा है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001276
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 1
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year1972
Total Pages720
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
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