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त्रिलोकप्रज्ञप्तिकी अन्य ग्रन्थीस तुलन
(५१)
और ऊर्ध्वलोकका दश स्थानों में वर्णित विस्तारप्रमाण' तथा सीमन्तक आदि ४९ इन्द्रकोका भी
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विस्तारप्रमाण' ।
(२) तिलोयपण्णत्तिकारके सामने जिस विषयका परम्परागत उपदेश नहीं रहा है। उस विषयका निरूपण न करनेका कारण उन्होंने तद्विषयक उपदेशका अभाव ही बतलाया है । परन्तु हरिवंशपुराणकारने न तो कहीं वैसा उल्लेख ही किया है और न उन विषयों का वर्णन भी । इसी प्रकार तिलोयपण्णत्तिकारके सामने जिस विषयपर आचार्यों का मतभेद रहा है उसका भी उन्होंने स्पष्टता से कहीं नामनिर्देशपूर्वक या कहीं नामनिर्देश न करके ' केइ आदि पदों द्वारा भी उल्लेख किया है, पर हरिवंशपुराण में ऐसा नहीं है ।
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( ३ ) तिलोयपण्णत्तिकारने नारकियों में असुरकृत वेदनाको बतलाते हुए सिकतानन व असिपत्र आदि जिन पन्द्रह असुर सुरोंके नामों का उल्लेख किया है वे हरिवंशपुराण में उपलब्ध नहीं होते। इन नामोंको खोजने का जहां तक प्रयत्न किया गया है, वे हमें किसी अन्य दिगम्बर ग्रन्थ में प्राप्त नहीं हो सके । परन्तु हां वे सूत्रकृताङ्ग और प्रवचनसारोद्धार आदि कितने हीं ताम्र ग्रन्थों में अवश्य प्राप्त होते हैं । यथा
अंबे अंबरिसी चेव सामे य सबले विय । रुद्दोवरुद्द काले य महाकाले ति आवरे ॥ असिपत्ते धणुं कुंभे बालु वेयरणी विय । खरस्सरे महाघोसे एवं पन्नरसाहिया ॥
सू. कृ. ५, १, ६८-६९ ( नियुक्ति )
( ४ ) तिलोयपण्णत्ति में जहाँ उत्कर्षसे प्रथमादिक सात पृथिवियोंमें क्रमशः आठ, सात, छह, पांच, चार, तीन और दो बार उत्पत्ति बतलाई गई है; वहां हरिवंशपुराण में क्रमशः सात, छह, पांच, चार, तीन, दो और एक बार ही उत्पत्ति बतलाई है ' ।
(५) तिलोयपण्णत्तिकारने सातवीं पृथिवीसे निकलकर तिर्यच । में उत्पन्न हुए कोई कोई जीव सम्यक्त्वको प्राप्त कर सकते हैं, ऐसा स्पष्ट उल्लेख किया है ( देखिये गा. २ २९२) । यह मत वर्तमान लोकविभाग में भी पाया जाता है । यथा
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संयतासंयतः षष्ठ्याः सप्तम्यास्तु मृतोद्गतः ।
सम्यक्त्वा भवेत् कश्चित् तिर्यात्र [तिर्ययैवात्र ] जायते ॥ लो. वि. ८-१०३.
१ ति. १. १, १७६-१७८, १, १९३-१९७; है. पु. ४, १७२८.
२ ति प. २, १०५-१५६. ह. पु. ४, १७१-२१७. ३ ति प. २-५४, ३-११३, ४-१५७२, १५८३, १६८८, १७१० ५-४८, ६-६६, ७-३२, ८-२७६. इत्यादि ।
४ देखिये पृ. ९८७-८८. ५ ति. प. २, ३४८-३४९. ६ इ. पु. ४, ३७६-३७८.
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