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________________ -८. ५६७] अट्ठमा महाधियारो [८५३ जिणलिंगधारिणो जे उक्किट्ठतवस्समेण संपुण्णा । ते जायंति अभग्वा उरिमगेवजपरियंतं ॥ ५६०.. परदो भच्चणदतवदसणणाणचरणसंपण्णा । णिग्गंथा जायते भवा सम्वट्ठसिद्धिपरियंतं ॥ ५६॥ घरया परिवजधरा मंदकसाया पियंवदा केई । कमसो भावणपहुदी जम्मते बम्हकप्पतं ॥ ५६२ ।। जे पंचेंदियतिरिया सण्णी हु अकामणिजरेण जुदा । मंदकसाया केई जति' सहस्सारपरियंतं ॥ ५६३ तणुदंडणादिसहिया जीवा जे अमंदकोहजुदा । कमसो भावणपहुदी केई जम्मति अच्चुदं नाव ॥ ५६४ मा ईसाणं कप्पं उप्पत्ती होदि देवदेवीणं । तप्परदो उम्भूदी देवागं केवलाणं पि ॥ ५६५ ईसाणलंतवाचुदकप्पतं जाव होति कंदप्पा । किग्विसिया अभियोगा णियकप्पजहण्णठिदिसहिया ।। ५६६ । एवमाउगबंधो सम्मत्तो' । जायंते सुरलोए उववादपुरे महारिहे सयणे । जादा य" मुहेत्तेणं छप्पजत्तीओ पावंति ॥ ५६७ जो अभव्य जिनलिंगको धारण करनेवाले और उत्कृष्ट तपके श्रमसे संपूर्ण हैं वे उपरिम प्रैवेय पर्यन्त उत्पन्न होते हैं ॥ ५६० ॥ पूजा, व्रत, तप, दर्शन, ज्ञान और चारित्रसे सम्पन्न निर्ग्रन्थ भव्य इससे आगे सर्वार्थसिद्धि पर्यन्त उत्पन्न होते हैं ।। ५६१ ॥ मंदकषायी व प्रिय बोलनेवाले कितने ही चरक ( साधुविशेष ) और परिव्राजक क्रमसे भवनवासियोंको आदि लेकर ब्रम्ह कल्प तक उत्पन्न होते हैं ॥ ५६२ ।। जो कोई पंचेन्द्रिय तिथंच संज्ञी अकामनिर्जरासे युक्त और मंदकषायी हैं वे सहस्रार कल्प तक उत्पन्न होते हैं ॥ ५६३ ॥ ___जो तनुदण्डन अर्थात् कायक्लेश आदिसे सहित और तीव्र क्रोधसे युक्त हैं ऐसे कितने ही जीव क्रमशः भवनवासियोंसे लेकर अच्युत स्वर्ग पर्यन्त जन्म लेते हैं ॥ ५६४ ॥ देव और देवियोंकी उत्पत्ति ईशान कल्प तक होती है। इसके आगे केवल देवोंकी ही उत्पत्ति है ॥ ५६५॥ कन्दर्प, किल्विषिक और आभियोग्य देव अपने अपने कल्पकी जघन्य स्थिति सहित क्रमशः ईशान, लान्तव और अच्युत कल्प पर्यन्त होते हैं ॥ ५६६ ॥ इस प्रकार आयुबंधका कथन समाप्त हुआ । ये देव सुरलोकके भीतर उपपादपुरमें महाध शय्यापर उत्पन्न होते हैं और उत्पन्न होनेके पश्चात् एक मुहूर्तमें ही छह पर्याप्तियोंको भी प्राप्त कर लेते हैं ॥ ५६७ ॥ १६व तवासमेण. २९ ब मंचतपद. ३ दब जाव..४८ व बंध सम्मवा. ५९ बजाजा ब. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001275
Book TitleTiloy Pannati Part 2
Original Sutra AuthorVrushabhacharya
AuthorA N Upadhye, Hiralal Jain
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1956
Total Pages642
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Geography
File Size12 MB
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