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-८. १५७] अट्ठमो महाधियारो
[ ८५३ इंदाणं चिण्हाणि पत्तेक्कं ताव जा सहस्सारं । आगदारणजुगले चोइसठाणेसु वोच्छामि ॥ ४५० सूवरहरिणीमहिसा मच्छा कुम्मा य भेकहयहत्थी। चंदादिगवयछगला वसहकप्पतरू मउडमझेसुं ॥ ५५१
[पाठान्तरम् ।] इंदाणं परिवारा पडिंदपहदी ण होंति कइया वि । अहमिदाणं सप्पडिवाराहिंतो अणंतसोक्खाणं ॥ ४५२ उववादसभा विविहा कप्पातीदाण होति सव्वाणं । जिणभवणा पासादा जाणाविहदिव्वरयणमया ॥ ४५१ अभिसेयसभा संगीयपहदिसालाओ चित्तरुक्खा य । देवीओण दीसंति कप्पातीदेस कइया वि॥१५१ गेहुच्छेहो दुसया पण्णभहियं सयं सुद्धं । हेहिममज्झिमउवरिमगेवजेसं कमा होति ॥ ४५५
२०० । १५०।१०.। भवणुच्छेहपमाणं अणुहिसाणुत्तराभिधाणेसुं । पण्णासा जोयणया कमसो पणुवीसमेत्ताण ॥ ४५६
५० । २५ । उदयस्स पंचमंसा दीहत्तं तद्दलं च वित्थारो। पत्तेक्कं णादव्या कपातीदाण भवणेसं ॥ ४५७
एवं इंदविभूदिपरूवणा सम्मत्ता।
सहस्रार कल्प तक प्रत्येक इन्द्रके तथा आनत और आरण युगलमें इस प्रकार चौदह स्थानोंमें चिह्नोंको कहते हैं ॥ ४५० ॥
. शूकर, हरिणी, महिष, मत्स्य, कूर्म, भेक, हय, हाथी, चन्द्र, सर्प, गवय, छगल, वृषभ और कल्पतरु, ये चौदह चिह्न मुकुटोंके मध्यमें होते हैं ।। ४५१॥ [पाठान्तर।]
इन्द्रोंके प्रतीन्द्र आदि परिवार होते हैं। किन्तु सपरिवार इन्द्रोंकी अपेक्षा अनन्त सुखसे युक्त अहमिन्द्रोंके उपर्युक्त परिवार कदापि नहीं होते ॥ ४५२ ॥
___सब कल्पातीतोंके विविध प्रकारकी उपपादसभायें, जिनभवन, नाना प्रकारके दिन्य रत्नोंसे निर्मित प्रासाद, अभिषेकसभा, संगीत आदि शालायें और चैत्यवृक्ष भी होते हैं। परन्तु कल्पातीतोंके देवियां कदापि नहीं दिखतीं ॥ ४५ -४५४ ॥
अधस्तन, मध्यम और उपरिम अवेयोंमें प्रासादोंकी उंचाई क्रमसे दो सौ, एक सौ पचास और केवल सौ योजन है ॥ ४५५ ॥ अ. ]. २००, म. ]. १५०, उ. ]. १०० ।
अनुदिश और अनुत्तर नामक विमानोंमें भवनोंकी उंचाईका प्रमाण क्रमसे पचास और पच्चीस योजन मात्र है ॥ ४५६ ॥ अनुदिश ५० अनुत्तर २५ ।।
कल्पातीतोंके भवनों में प्रत्येककी दीर्घता उंचाईके पांचवें भाग और विस्तार उससे आधा समझना चाहिये ॥ ४५७ ॥
इस प्रकार इन्द्रविभूतिकी प्ररूपणा समाप्त हुई।
१ब जाव. २द व हयचंआ हिदवयछगला पंचतरू. ३ द प कहया आदि. TP, 105
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