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-८. १९५] अट्ठमो महाधियारो
[ ८२५ मायाविवजिदाओ बहुरदिकरणेसु णिउणबुद्धीओ । ओलग्गते णिचं णियाणियइंदाण चलणाई ॥ ३८८ बब्बरचिलादखुजयकम्मतियदासदासिपहुदीओ । अंतेउरजोग्गाओ चेटुंति विचित्तवेसाओ ॥ ३८९ इंदाणं अस्थाणे' पीढाणीयस्त अहिवई देवा । रयणासगाणि देति हु सपादपीढाणि बहुवाणि ॥ ३९० जं जस्स जोग्गमुच्चं [णिच्चं] णियडं विदोरमासणयं । तं तस्स [देंति ] देवा णादूर्ण भूमिभागाइं ॥३९१ वररयणदंडहत्था पडिहारा होति इंदअट्ठाणे । पत्थावमपत्थावं ओलग्गंताण घोसंति ॥ ३९२ अवरे वि सुरा तेसिं णाणाविहपेसणाणि कुणमाणा । इंदाण भत्तिभरिदा आणं सिरसा पडिच्छंति ॥ ३९॥ पडिइंदादी देवा णिब्भर भत्तीए णिच्चमोलग्गं । भभिमुहठिदा सभाए णियणियइंदाण कुव्वंति ॥ ३९४ पुव्वं ओलग्गसभा सक्कीसाणाण जारिसा भणिदा। तारिसया सव्वाणं णियणियणयरेसु इंदाणं ॥ ३९५
मायासे रहित और बहुत अनुरागके करने में निपुण बुद्धिवाली वे देवियां नित्य अपने अपने इन्द्रोंके चरणोंकी सेवा करती हैं ॥ ३८८ ॥
__ अन्तःपुरके योग्य बर्बर, किरात, कुब्जक, कर्मान्तिक और दास-दासी आदि विचित्र वेषोंसे युक्त स्थित रहते हैं ॥ ३८९ ॥
इन्द्रोंके आस्थानमें पीठानीकके अधिपति देव पादपीठ सहित बहुतसे रत्नमय आसनोंको देते हैं ॥ ३९० ॥
___ जो जिसके योग्य उच्च व [ नीच ] एवं निकट व दूरवर्ती आसन होता है, भूमिभागोंको जानकर देव उसके लिये वह देते हैं ॥ ३९१ ॥
इन्द्रके आस्थान अर्थात् सभामें उत्तम रत्नदण्डको हाथमें लिये हुए जो द्वारपाल होते हैं वे सेवकोंके लिये प्रस्तुत व अप्रस्तुत कार्यकी घोषणा करते हैं ॥ ३९२ ॥
उनके नाना प्रकारके कार्योंको करनेवाले इतर देव भी इन्द्रोंकी भक्तिसे भरे हुए उनकी आज्ञाको शिरसे ग्रहण करते हैं ॥ ३९३ ॥
___ प्रतीन्द्रादिक देव अत्यन्त भक्तिसे सभामें अभिमुख स्थित होकर अपने अपने इन्द्रोंकी नित्य सेवा करते हैं ॥ ३९४ ॥
पूर्वमें सौधर्म व ईशान इन्द्रकी जैसी ओलग्गसभा ( सेवकशाला ) कही है वैसी अपने अपने नगरामें सब इन्द्रोंके होती है ॥ ३९५ ॥
१द ब अत्थाणं. २दब ओलगताणं त. TP. 104
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