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तिलोयपण्णत्ती
[ ८.९७
पुरिमाचलीपवणिद संचिपहुदीसु तेसु पत्तेक्कं । नियणामेसुं मज्झिमभावत्तत्त्रिसिद्धभाइ जोऐज्ज ॥ ९७ एवं चउसु दिसासुं णामेसुं दक्खिणादियदिसासुं । सेडिगदाणं णामा पीदिंकरदयं जाव ॥ ९८ आइचदयस्य पुष्वादिसु लच्छिलच्छिमालिणिया । वहरावहरावणिया चत्तारो वरविमाणाणि ॥ ९९ विजयंतवइजयंतं जयंतमपराजिदं च चत्तारो | पुष्वादिसु माणाणि ठिदागि' सन्बट्टसिद्धिस्स || १०० उडुसेढीबद्धद्धं सर्वभुरमणं बुरासि पणिधिगदं । सेसा भइलेसुं तिसु दीवेसुं तिसुं समुद्देसुं ॥ १०१ ३१ | १५ | ८ ।४।२।१।१। एवं मिर्त्तितं विण्णासो होदि सेढिबद्धाणं । कमसो आइलेसुं तिसु दीवसुं तिजलहीसुं ॥ १०२ पलादिपदो जाय सहस्सारपत्थलंतो त्ति । आइलतिष्णिदीवे दोण्णिसमुद्दम्मि सेसाओ । १०३
पूर्वपंक्ति में वर्णित उन संस्थित आदि श्रेणीबद्ध विमानोंमेंसे प्रत्येक के अपने नामों में मध्यम, आवर्त, विशिष्ट आदि जोड़ना चाहिए [ जैसे - संस्थितमध्यम, संस्थितावर्त और संस्थितविशिष्ट आदि ] ॥ ९७ ॥
इस प्रकार दक्षिणादिक चारों दिशाओं में प्रीतिंकर इन्द्रक तक श्रेणीबद्ध विमानोंके नाम हैं ॥ ९८ ॥
आदित्य इन्द्रकी पूर्वादिक दिशाओं में लक्ष्मी, लक्ष्मीमालिनी, वज्र और वज्रावनि, चार उत्तम विमान हैं ॥ ९९ ॥
विजयन्त, वैजयन्त, जयन्त और अपराजित, ये चार विमान सर्वार्थसिद्धिकी पूर्वादिक दिशाओं में स्थित हैं ॥ १०० ॥
ऋतु इन्द्रकके अर्ध श्रेणीबद्ध स्वयम्भूरमण समुद्रके प्रणिधि भागमें स्थित हैं। शेष श्रेणीबद्ध विमान आदिके अर्थात् स्वयंभूरमण समुद्र से पूर्वके तीन द्वीप और तीन समुद्रोंपर स्थित हैं ॥ १०१ ॥ ३१, १५, ८, ४, २, १, १ ।
इस प्रकार मित्र इन्द्रक पर्यन्त श्रेणीबद्धों का विन्यास क्रमसे आदिके तीन द्वीपों और तीन समुद्रोंके ऊपर है ॥ १०२ ॥
प्रभ प्रस्तारसे आगे सहस्रार प्रस्तार तक शेष आदिके तीन द्वीपों और दो समुद्रों पर स्थित हैं ॥ १०३ ॥
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१ द व ठिदाण. २ द से, व सेसं.
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