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तिलोयपण्णत्ती
७. ३५७
तेसद्विसहस्साणिं छस्सय बासटि जायणाणि कला । चत्तारो बहिमगहिदम्मि तवणम्मि बहिपहे ताओ।
६३६६२/६ एक्कं लक्खं णवजुदचउवण्णसयाणि जोयणा अंसो । बाहिरपट्टिदक्के तावखिदी लवणछटुंसे ॥ ३५८
भादिमपहादु बाहिरपहम्मि भाणुस्स गमणकालम्मि । हाएदि किरणसत्ती ववदि यागमणकालम्मि ॥३५९ सावक्खिदिपरिधीए ताओ एक्ककमलणाहम्मि । दुगुगिदपरिमाणामओ सहस्पकिरणेसु दोपहंमिम ॥ ३६०
। तावखिदिपरिही सम्मत्ता । सवासुं परिहीसुं पढमपहट्ठिदसहस्सकिरणम्मि । बारसमुहुत्तमेत्ता पुह पुह उप्पजदे रत्ती ॥ ३६१ इच्छिदपरिहिपमाणं पंचविदत्तम्मि होदि जं लद्धं । सा तिमिरखेत्तपरिही पढमपहदिदिणेसम्मि ॥ ३६२
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— सूर्यके बाह्य मार्गमें स्थित होनेपर बाह्य पंथमें तापक्षेत्र तिरेसठ हजार छह सौ बासठ योजन और चार कलाप्रमाण रहता है ॥ ३५७ ॥ ६३६६२६ ।
सूर्यके बाह्य पथमें स्थित होनेपर लवण समुद्रके छठे भागमें तापक्षेत्र एक लाख चौवन सौ नौ योजन और एक भागमात्र रहता है ॥ ३५८ ॥ १०५४०९।
आदि पथसे बाह्य पथकी ओर जाते समय सूर्य की किरणशक्ति हीन होती है और बाह्य पथले आदि पथकी ओर वापिस आते समय वह किरणशक्ति वृद्धिंगत होती है ॥ ३५९॥
एक सूर्यके रहते तापक्षेत्रपरिधिमें जितने प्रमाण ताप रहता है उससे दुगुणे प्रमाण वह दो सूर्योके रहनेपर होता है ॥ ३६० ॥
तापक्षेत्रपरिधिका कथन समाप्त हुआ । सूर्यके प्रथम पथमें स्थित रहनेपर पृथक् पृथक् सब परिधियोंमें बारह मुहूर्तप्रमाण रात्रि होती है ॥ ३६१ ॥
इच्छित परिधिप्रमाणको पांचसे विभक्त करनेपर जो लब्ध आवे उतना सूर्यके प्रथम पथमें स्थित होनेपर तिमिरक्षेत्रपरिधिका प्रमाण होता है ॥ ३६२ ॥
इच्छित मेरुपरिधि ३१६२२ * ५ = ६३२३२ मेरुके ऊपर ति. क्षे. प्रमाण ।
१द परिहिदीए, २ एषा गाथा व पुस्तके नास्ति.
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