________________
[छट्ठो महाधियारो] चौसीसासिएहि विम्हय जणणं सुरिंदपहुदीणं । णमिऊण सीदलजिणं वतरलाय रूपमा ।। । वेंतरणिवासखेत्तं भेदा एदाण विविहचिण्हाणि । कुलभेदो णामाइं भेदविही दक्खिणुत्तरिंदाणं ॥ २ भाऊणि भाहारो उस्सासो भोहिणाणसत्तीओ । उस्सेहो संखाणि जम्मणमरणाणि एक्कसमयम्मि ॥ ३ भाऊबंधणभावो दंसणगहणस्स कारणं विविहं । गुणठाणादिवियप्पा सत्तरस हुवंति महियारा ॥ ४
१७॥ रज्जुकदी गुणिदव्वा णवणउदिसहरसअधियलक्खेणं । तम्मुझे तिवियप्पा वेंतरदेवाण होंति पुरा ॥ ५
३३ । १९९०००। भवर्ण' भवणपुराणिं आवासा इय भवंति तिवियप्पा । जिणमुहकमलविणिग्गदवेंतरपण्णत्तिणामाए॥६ रयणप्पहपुढवीए भवणाणि दीवउवहिउवरिम्मि । भवणपुराणिं दहगिरिपहृदीणं उरि आवासा ॥ ७ बारससहस्सजीयणपरिमाणं होदि जेटुभवणाणं । पत्तेकं विक्खंभा तिणि सयाण' च बहलत्तं ॥८
१२०००।३००।
चौंतीस अतिशयोंसे देवेन्द्र आदि जनोंको आश्चर्य उत्पन्न करनेवाले शीतल जिनेन्द्रको नमस्कार करके व्यन्तरलोकका निरूपण करते हैं ॥१॥
'व्यन्तरों का निवासक्षेत्र, उनके भेद, 'विविध प्रकारके चिन्ह, 'कुलभेद, 'नाम, दाक्षिणउत्तर इन्द्रोंका भेद, "आयु, ‘आहार, उच्छ्वास, अवधिज्ञानकी शक्तियां, "उंचाई,"संख्या, "एक समयमें जन्म,"मरण, "आयुके बन्धक भाव, “सम्यक्त्वग्रहणके विविध कारण और "गुणस्थानादिविकल्प, इस प्रकार ये सत्तरह अधिकार होते हैं ॥ २-४ ॥
. राजुके वर्गको एक लाख निन्यानबै हजारसे गुणा करनेपर जो प्राप्त हो उसके मध्यमें व्यन्तर देवोंके तीन प्रकारके पुर होते हैं ॥ ५॥
जिन भगवान्के मुखरूप कमलसे निकले हुए व्यन्तर प्रज्ञप्ति नामक अधिकारमें भवन, भवनपुर और आवास इस प्रकार तीन प्रकारके भवन कहे गये हैं ॥ ६ ॥
इनमेंसे रत्नप्रभा पृथिवीमें भवन, द्वीप-समुद्रोंके ऊपर भवनपुर और द्रह एवं पर्वतादिकोंके ऊपर आवास होते हैं ॥ ७ ॥
___ उत्कृष्ट भवनों में से प्रत्येकका विस्तार बारह हजार योजन और बाहल्य तीन सौ योजनप्रमाण है ॥ ८ ॥ १२००० । ३०० ।
१द चउतीसा. २ द ब मवणिं. ३ द ब तिविहप्पा. ४द दीवओहि. ५ द सथाणि.
TP. 81
Jan Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org