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________________ [५११ -५.९५] पंचमो महाधियारो भारूढो वरतुरयं वरभूसणभूसिदो विविहसोहो । कदलीफलसहहत्थो माहिंदो एदि भत्तीए ॥ ८७ हंसम्मि चंदधवले आरूढो विमलदेहसोहिल्लो । वरकेई कुसुमकरो भत्तिजुदो एदि बहिदो .॥ ८८ कोंचविहंगारूढो वरचामरविविहछत्तसोहिल्लो । पप्फुल्ल कमलहत्थो एदि हु बम्हुत्तरिंदो वि ॥ ८९ बरचक्काआरूढौं कुंडलकेयूरपहुदिदिप्पती । सयवंतियकुसुमको शुक्किंदो भत्तिभरिदमणो । ९० कारविहंगारूढो महसुक्किंदो वि एदि भत्तीए । दिध्वविभूदिविभूसिददेहो वरविविहकुसुमदामकरो ॥ ९१ णीलुप्पलकुसुमकरो कोइलवाहणविमाणमारूढो । वररयणभूसिदंगो सदरिंदो' एदि भत्तीए । ९२ गरुडविमाणारूढो दाडिमफललुंबिसोहमाणकरो। जिणचलणभत्तिरत्तो एदि सहस्सारइंदो वि॥ ९३ विहगाहिबमारूढो पणपंफलटुंबिलबमाणकरो । वरदिव्वविभूदीर आगच्छदि आणदिंदो वि ॥ ९४ पउमविमाणारूढो पाणदइंदो वि एदि भतीए । तुंबुरुफललुंबिकरो वरमंडणमंडियायारो ॥ ९५ उत्तम भषणोंसे विभूषित और विविध प्रकारकी शोभाको प्राप्त माहेन्द्र श्रेष्ठ घोड़ेपर चढ़कर हाथमें केलोंको लिये हुए भक्तिसे यहां आता है ॥ ८७ ॥ ___चन्द्रके समान धवल हंसपर आरूद, निर्मल शरीरसे सुशोभित और भक्तिसे युक्त ब्रह्मेन्द्र उत्तम केतकी पुष्पको हाथमें लेकर आता है ।। ८८ ॥ ___ उत्तम चवर एवं विविध छत्रसे सुशोभित और फूले हुए कमलको हाथमें लिये हुए ब्रह्मोत्तर इन्द्र भी क्रौंच पक्षीपर आरूढ़ होकर यहां आता है ॥ ८९॥ कुंडल एवं केयूर प्रभृति आभरणोंसे देदीप्यमान और भक्ति से पूर्ण मनवाला शुक्रेन्द्र उत्तम चक्रवाकपर आरूढ़ होकर सेवंती पुष्पको हाथमें लिये हुए यहां आता है ॥९॥ दिव्य विभूतिसे विभूषित शरीरको धारण करनेवाला तथा उत्तम एवं विविध प्रकारके फूलोंकी मालाको हाथमें लिये हुए महाशुक्रेन्द्र भी तोता पक्षीपर चढ़कर भक्तिवश यहां आता है ॥ ९१ ॥ कोयलवाहन विमानपर आरूढ, उत्तम रत्नोंसे अलंकृत शरीरसे संयुक्त और नील कमलपुष्पको हाथमें धारण करनेवाला शतार इन्द्र भक्तिसे प्रेरित होकर यहां आता है ॥ ९२ ।। गरुडविमानपर आरूढ़, अनार फलोंके गुच्छेसे शोभायमान हाथवाला और जिनचरणोंकी भक्तिमें अनुरक्त हुआ सहस्रार इन्द्र भी आता है ॥ ९३ ॥ विहगाधिप अर्थात् गरुडपर आरूढ़ और पनस अर्थात् कटहल फलके गुच्छेको हाथमें लिये हुए आनतेन्द्र भी उत्तम एवं दिव्य विभूतिके साथ यहां आता है ॥ ९४ ॥ उत्तम आभरणोंसे मण्डित आकृतिसे संयुक्त और तुम्बरु फलके गुच्छेको हाथमें लिये हुए प्राणतेन्द्र भी भक्तिवश पद्म विमानपर आरूढ़ होकर यहां आता है ॥ ९५ ॥ १द ब सदारिंदो. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001275
Book TitleTiloy Pannati Part 2
Original Sutra AuthorVrushabhacharya
AuthorA N Upadhye, Hiralal Jain
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1956
Total Pages642
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Geography
File Size12 MB
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