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________________ त्रिलोकप्रज्ञप्तिकी अन्य ग्रंथोंसे तुलमा श्यवह, पाप, वहिज्वाल, अधःशिरा, सन्देश, कालसूत्र, तम, आवीचि, श्वभोजन, अप्रतिष्ठ और अप्रचि इत्यादि बहुतसे मा भयानक नरक हैं। इनमें पापी जीव मरकर जन्म लेते हैं। फिर वहाँसे निकलकर वे क्रमशः स्थावर, कृमि, जलचर, धार्मिक पुरुष, देव और मुमुक्षु होते हैं। जितने जीव स्वर्गमें हैं उतने ही नरकोंमें भी हैं। भूमिसे ऊपर एक लाख योजनकी दूरीपर सौर मण्डल, इससे एक लाख योजन ऊपर चन्द्रमण्डल, इससे एक लाख योजन ऊपर समस्त नक्षत्रमण्डल, इससे दो लाख यो. ऊपर बुध, इससे दो लाख यो. ऊपर शुक्र, इससे दो लाख यो. ऊपर मंगल, इससे दो लाख यो. ऊपर बृहस्पति, इससे दो लाख यो. ऊपर शनि, इससे एक लाख यो. ऊपर सप्तर्षिमण्डल, तथा इससे एक लाख यो. ऊपर ध्रुव स्थित है। (एतद्विषयक जैन मान्यताके लिये देखिये पीछे पृ. ३२) ध्रुवसे एक करोड़ योजन ऊपर जाकर महर्लोक है । यहां कल्पकाल तक जीवित रहनेवाले कल्पवासियोंका निवास है। इससे दो करोड़ यो. ऊपर जनलोक है। यहां नन्दनादिसे सहित ब्रह्माजीके प्रसिद्ध पुत्र रहते हैं । इससे आठ करोड़ यो. ऊपर तपलोक है। यहां वैराज देव निवास करते हैं। इससे बारह करोड़ यो. ऊपर सत्यलोक है। यहां फिरसे न मरनेवाले अमर ( अपुनर्मारक) रहते हैं। इसे ब्रह्मलोक भी कहा जाता है। भूमि ( भूलोक) और सूर्यके मध्यमें सिद्धजनों व मुनिजनोंसे सेवित स्थान भुवर्लोक कहलाता है । सूर्य और ध्रुवके मध्यमें चौदह लाख यो. प्रमाण क्षेत्र स्वर्लोक नामसे प्रसिद्ध है। भूलोक, भवर्लोक और स्वर्लोक ये तीन लोक कृतक तथा जनलोक, तपलोक और सत्यलोक ये तीन लोक अकृतक हैं । इन दोनों ( कृतक और अकृतक ) के बीचमें महलोंक है। यह कल्पान्तमें जनशून्य हो जाता है, परन्तु सर्वथा नष्ट नहीं होता। १२ बौद्धाभिमत भूगोल (वसुबन्धुकृत अभिधर्म-कोशके आधारसे, ५वीं शताब्दि) लोकके अधोभागमें सोलह लाख (१६०००००) योजन ऊंचा अपरिमित वायुमण्डल है। उसके ऊपर ग्यारह लाख वीस हजार ( ११२०००० ) यो. ऊंचा जलमण्डल है। इसमें तीन १ जैन ग्रन्थोंमें जो ४९ इन्द्रक नारक बिल कहे गये हैं उनमें ये नाम भी पाये जाते हैं- रौरव, प्रज्वलित, तप्त, तम व अप्रतिष्ठान । यहां वैतरणि नदी एवं असिपत्र वन भी बताये गये हैं। जन्मभूमियां पहा अधोमुख हैं। २ जैन ग्रन्थोंमें वैमानिक देवोंके कम्पवासी और कल्पातीत ये दो भेद बतलाये गये हैं। इन दोनोंका ही निवास ऊर्व लोकमें है। For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001275
Book TitleTiloy Pannati Part 2
Original Sutra AuthorVrushabhacharya
AuthorA N Upadhye, Hiralal Jain
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1956
Total Pages642
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Geography
File Size12 MB
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