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त्रिलोकप्रज्ञप्तिकी अन्य ग्रन्थोंसे तुलना
(८५) साफ साफ दिखने लगी थीं। तत्पश्चात् वे नग्न होकर मुखमें बीटा करके महावामको प्राप्त हुए। चूंकि महाराज ऋषभने वन जाते समय राज्य भरतको दिया था, अतः यह हिम वर्ष भरतके नामसे भारत वर्ष प्रसिद्ध हुआ । इसके निम्न नी भाग हुए हैं- इन्द्रद्वीप, कसेरु, ताम्रपर्ण, गभस्तिमान् , नागद्वीप, सौम्य, गन्धर्व और वारुण ये आठ, तथा समुद्रसे वेष्टित नौवां भाग । यह भाग दक्षिण-उत्तरमें सहस्र योजन प्रमाण है। इसके पूर्व मागमें किरात और पश्चिम भागमें यवनोंका निवास है।
___ जम्बू द्वीपको वलयाकारसे वेष्टित करके एक लाख योजन विस्तारवाला लवणसमुद्र स्थित है। इसको चारों ओरसे वेष्टित करनेवाला दो लाख योजन विस्तृत प्लक्ष द्वीप स्थित है। इसके अधीश्वर मेधातिथि थे । उनके सात पुत्र हुए, जिनके नामोंसे इस द्वीपके निम्म सात वर्ष प्रसिद्ध हुए हैं- शान्तहय, शिशिर, मुखोदय, आनन्द, शिव, क्षेमक और ध्रुव । इनके विभाजक पर्वतोंके नाम ये हैं- गोमेद, चन्द्र, नारद, दुन्दुभि, सोमक, सुमना और वैश्नाज । इन वर्षोंमें और पर्वतोंके ऊपर देव-गन्धवोंके साथ जो प्रजाजन निवास करते हैं वे अतिशय पुण्यवान् । आधि व्याधिसे रहित हैं। वहां न उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी हैं और न युगपरिवर्तन ही है । वहां सदा त्रेता युग जैसा दाल रहता है। आयु वहां पांच हजार वर्ष परिमित है। यहांके निवासी वर्णाश्रम विभागके अनुसार पांच धर्मों ( अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, और अपरिग्रह ) का परिपालन करते हैं। जिस प्रकार जम्बू द्वीपमें जम्बू वृक्ष है उसी प्रकार इस द्वीपमें एक प्लक्ष वृक्ष स्थित है । इसीके कारण इस द्वीपका भी नाम प्लक्ष द्वीप प्रसिद्ध हुआ।
इस द्वीपको इसीके समान विस्तारवाला इक्षुरसोद समुद्र वेष्टित करता है। इसको भी चारों ओरसे घेरनेवाला चार लाख योजन विस्तृत शाल्मल द्वीप है। इसी क्रमसे आगे सुरोद समुद्र, कुश द्वीप, घृतोद समुद्र, क्रौंच द्वीप, दधिमण्डोदक समुद्र, शाक द्वीप और क्षीर समुद्र स्थित है । ये द्वीप पूर्व-पूर्व द्वीपकी अपेक्षा दूने-दूने विस्तारवाले हैं। समुद्रोंका विस्तार अपने अपने द्वीपोंके समान है। शामल आदि शेष उपर्युक्त द्वीपोंका रचनाक्रम प्लक्ष द्वीपके समान है।
. जैन धर्ममें नाभिरायके पुत्र भगवान् ऋषभ देवको प्रथम तीर्थकर माना गया है। उनके भरतादिक सौ पुत्र थे। उन्होंने कुछ समय तक प्रजापरिपालन करके राज्य भरतको दे दिया और स्वयं दैगम्बरी दीक्षा ले ली। पश्चात् घोर तप करके कैवल्य प्राप्त होनेपर धर्मप्रचार किया और अन्तमें मुक्ति प्राप्त की। विष्णुपुराणमें तृतीय अंशके अन्तर्गत सत्रहवें और अठारहवें अध्यायमें भगवान् ऋषभके चरित्रका चित्रण करके जैन धर्म और दिगम्बर साधुओंपर कुछ कटाक्ष किया गया हैं जो प्रायः धार्मिक असहिष्णुताका सापक है।
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