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________________ त्रिलोकप्रज्ञप्तिकी अन्य अन्योंसे तुलना (७७) (३) यहां बृहत्क्षेत्रसमासमें अन्तरद्वीपोंकी स्थिति इस प्रकार बतलाई है- पूर्व व पश्चिम दिशामें वेदिकासे आगे क्रमशः हिमवान् पर्वतके ईशान और अग्निकोण तथा नैऋत्य व वायुकोणमें एक-एक दंष्टा है । इनसे आगे क्रमशः तीन सौ, चार सौ, पांच सौ, छह सौ, सात सौ, आठ सौ और नौ सौ योजन लवण समुद्र में प्रवेश करनेपर एक एक अन्तरद्वीप है । इस प्रकार अट्ठाईस द्वीप हिमवान् पर्वत सम्बन्धी और अट्ठाईस ही शिखरी पर्वत सम्बन्धी, समस्त अन्तरद्वीप छप्पन हैं। इन अन्तरद्वीपोंके नाम क्रमश: एकोरुक, आमाषिक वैषाणिक और लाङ्गलिक आदि हैं। इनमें रहनेवाले मनुष्य आठ सौ धनुष ऊंचे, सदा प्रमुदित, मिथुनधर्म परिपालक, पल्यके असंख्यातवें भाग प्रमाण आयुसे संयुक्त, चौंसठ पृष्ठकरण्डकोंसे सहित और एक दिनके अन्तरसे आहार करनेवाले हैं । (देखिये बृ. क्षे. २, ५६-६३, ७३-७४) परन्तु त्रिलोकप्रज्ञप्तिमें इन द्वीपोंका अवस्थान भिन्न खरूपसे बतलाया गया है । वहाँ एकोस्क आदिकोंको द्वीपोंके नाम न स्वीकार कर वहां रहनेवाले मनुष्योंका वैसा आकार माना गया है । ( देखिये ति. प. ४, २४७८ से २४९९)। (४) बृहत्क्षेत्रसमास (१,३५५-५६) में जो पाण्डुकशिलादिकी लम्बाई ५०० यो. और चौड़ाई २५० यो. बतलायी गयी है, उस मतका उल्लेख ति. प. गा. ४-१८२१ में • सग्गायणिआइरिया' कह कर किया गया है। ९ प्रवचनसारोद्धार श्वेताम्बर सम्प्रदायमें श्री नेमिचन्द्र सूरिनिर्मित यह एक प्रसिद्ध ग्रन्थ है। इसमें २७६, द्वार और १५९९ गाथायें हैं। यह सिद्धसेनसूरिकृत वृत्ति सहित दो भागोंमें सेठ देवचन्द्र लालभाई जैन पुस्तकोद्धार संस्था द्वारा प्रकाशित हो चुका है। इसमें बहुतसे विषय संगृहीत हैं । रचनाकाल इसका तेरहवीं शताब्दिके करीब प्रतीत होता है। जिस प्रकार त्रिलोकप्रज्ञप्तिमें नारक, भवनवासी, व्यन्तर, तीर्थकर, चक्रवर्ती, बलदेव व वासुदेव आदिकोंकी विस्तृत प्ररूपणा की गई है वैसे ही प्रायः उन सभी विषयोंकी प्ररूपणा यहां भी देखी जाती है । इस प्ररूणामें कहीं समानता व कहीं मतभेद भी हैं । समानता यथा (१) जिस प्रकार त्रिलोकप्रज्ञप्तिमें नारकारूपणामें नारक जीवोंकी निवासभूमि, नारकसंख्या, नारकायु, उत्सेध, विरहकाल व अवधिविषय आदिका वर्णन किया गया है ठीक उसी प्रकार ही इनका वर्णन यहां भी किया गया है ( देखिये प्र. सा. गा. १०७१ आदि)। (२) इसी प्रकरणके भीतर त्रिलोकप्रज्ञप्तिमें असुरकुमार जातिके जिन १५ भेदोंका निर्देश किया गया है वे यद्यपि किसी अन्य दिगम्बर ग्रन्थमें देखने में नहीं आये, परन्तु वे यहां Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001275
Book TitleTiloy Pannati Part 2
Original Sutra AuthorVrushabhacharya
AuthorA N Upadhye, Hiralal Jain
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1956
Total Pages642
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Geography
File Size12 MB
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