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________________ - तिलोयपण्णत्ती [१. १२८ एदेणे पल्लेणं दीवसमुदाण होदि परिमाणं । उद्धाररोमरासिं 'छेत्तणमसंखवाससमयसमं ॥ १२८ पुव्वं व विरविदेणं तदिय अद्धारपल्लणिप्पत्ती । णारयतिरियणरसुराण विण्णेया कम्महिदी तम्हि ॥ १२९ ।अद्धारपल्लं । एवं पलं समत्तं । एदाणं पल्लाणं दहप्पमाणाउ कोडिकोडीओ । सागरउवमस्स पुढं एकरस हवेज परिमाणं ॥ १३० सागरोपमं समत्तं । अद्धारपल्लछेदो तस्सासंखेयभागमेत्ते य । पल्लघणंगुलवग्गिदसंवम्गिदयम्हि सहजगसेढी ॥ १३॥ सू. २ । जग.-। तं वग्गे पदरंगुलपदराइ घणे घणंगुलं लोगो । जगसेढीए सत्तमभागो रज्जू पभासते ॥ १३२ ४ =६। । ।एवं परिभासा गदा । इस उद्धारपल्यसे द्वीप और समुद्रोंका प्रमाण जाना जाता है। उद्धारपल्यकी रोमराशिमेंसे प्रत्येक रोमखण्डके असंख्यात वर्षोंके समयप्रमाण खण्ड करके तीसरे गड़ेके भरनेपर और पहिलेके समान एक एक समयमें एक एक रोमखण्डको निकालने पर जितने समयमें वह गड़ा रिक्त हो जाय उतने कालको अद्धापल्योपम कहते हैं । इस अद्धा पल्यसे नारकी, तियंच, मनुष्य और देवोंकी आयु तथा कर्मोकी स्थितिका प्रमाण जानना चाहिये ॥ १२८-१२९ ॥ उद्धारपल्य समाप्त हुआ। इस प्रकार पल्य समाप्त हुआ। इन दशकोडाकोड़ी पल्योंका जितना प्रमाण हो उतना पृथक् पृथक् एक सागरोपमका प्रमाण होता है। अर्थात् दश कोडाकोडी व्यवहार पल्योंका. एक व्यवहारसागरोपम, दश कोड़ाकोड़ी उद्धारपल्योंका एक उद्धारसागरोपम और दश कोडाकोड़ी अदापल्योंका एक अद्धासागरोपम होता है ॥ १३०॥ सागरोपम समाप्त हुआ। अद्धापल्यके जितने अर्धच्छेद हों, उतनी जगह पल्यको रखकर परस्परमें गुणा करनेपर जो राशि उत्पन्न हो उसे सूच्यंगुल, और अद्धापल्यकी अर्धच्छेद राशिके असंख्यात वे भागप्रमाण धनांगुलको रखकर उनके परस्पर गुणाकरनेपर जो राशि उत्पन्न हो उसे जगश्रेणी कहते हैं ॥१३१ ॥ जगवे.- सू. अं. २ ___ उपर्युक्त सूच्यङ्गुलका वर्ग करनेपर प्रतरांगुल और जगप्रेणी का वर्ग करनेपर जगप्रतर होता है। इसी प्रकार सूच्यंगुलका घन करने पर धनांगुल और जगश्रेणीका घन करनेपर लोकका प्रमाण होता है। जगश्रेणीके सातवें भाग प्रमाण राजूका प्रमाण कहा जाता है ।। १३२ ॥ प्र. अं. ४; ज. प्र.=; घ. अं. ६; घ. लो. = । इसप्रकार परिभाषा समाप्त हुई । १ द छेत्तूण संख. २ द गराणं सुराण. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001274
Book TitleTiloy Pannati Part 1
Original Sutra AuthorVrushabhacharya
AuthorA N Upadhye, Hiralal Jain
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1956
Total Pages598
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Geography
File Size12 MB
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