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________________ -४. २९४३ ] चउत्थो महाधियारो [५२५ पंचविदेहे सट्टिसमण्णिदसदअजखंडए अवरे । छग्गुणठाणे तत्तो चोद्दसपेरंत दीसंति ॥ २९३६ सब्वेसुं भोगभुवे दो गुणठाणाणि सधकालम्मि । दीसंति चउवियप्पं सव्वमिलिच्छम्मि मिच्छत्तं ॥ २९३७ विजाहरसेढीए तिगुणढाणाणि सबकालम्मि । पणगुणठाणा दीसइ छडिदविजाण चोद्दसट्टाणं ॥२९३८ पजत्तापजत्ता जीवसमासा भवति ते दोणि । पज्जत्तियपजत्ती छब्भेया सव्वमणुवाणं ॥ २९३९ दसपाणसत्तपाणा चउसण्णा मणुसगदि हु पंचेंदी । गदिइंदिय तसकाया तेरसजोगा विकुव्वदुगरहिदा ॥२९४० ते वेदत्तयजुत्ता अवगदवेदा वि केइ दीसंति । सयलकसाएहिं जुदा अकसाया होंति केई णरा ॥ २९४१ सयलेहिं णाणेहिं संजमदंसणहिं लेस्सले स्सेहि । भव्वाभब्वत्तेहिं य छविहसम्मत्तसंजुत्ता ॥ २९४२ सण्णी हुवेदि सव्वे ते आहारा तहा अगाहारा । णाणोबजोगदंसणउवजोगजुदा वि ते सव्वे ॥ २९४३ । गुणट्ठाणादी समत्ता। पांच विदेहक्षेत्रोंके भीतर एकसौ साठ आर्यखण्डोंमें जघन्यरूपसे छह गुणस्थान और उत्कृष्टरूपसे चौदह गुणस्थान तक पाये जाते हैं ।। २९३६ ॥ सब भोगभूमिजोंमें सदा दो गुणस्थान ( मिथ्यात्व और असंयतसम्यग्दृष्टि ) और [ उत्कृष्टरूपसे ] चार गुणस्थान रहते हैं । सब म्लेच्छखण्डोंमें एक मिथ्यात्व गुणस्थान ही रहता है ॥ २९३७ ॥ विद्याधरश्रेणियोंमें सर्वदा तीन गुणस्थान ( मिथ्यात्व, असंयत और देशसंयत ) और उत्कृष्टरूपसे पांच गुणस्थान होते हैं । विद्याओंके छोड़ देनेपर वहां चौदह गुणस्थान भी होते हैं ।। २९३८ ॥ सब मनुष्योंके पर्याप्त व अपर्याप्त दोनों जीवसमास तथा छहों पर्याप्तियां और छहों अपर्याप्तियां भी होती हैं ॥ २९३९ ॥ ___ सब मनुष्योंके पर्याप्त अवस्थामें दश और अपर्याप्त अवस्थामें सात प्राण होते हैं। संज्ञायें इसके चारों ही होती हैं। चौदह मार्गणाओंमेंसे क्रमशः गतिकी अपेक्षा मनुष्यगति, इन्द्रियकी अपेक्षा पंचेन्द्रिय, त्रसकाय और पन्द्रह योगोंमें वैक्रयिक और वैक्रयिकमिश्रको छोड़कर शेष तेरह योग होते हैं ॥ २९४० ॥ वे मनुष्य तीनों वेदोंसे युक्त होते हैं, परन्तु कोई मनुष्य (अनिवृत्तिकरणके अवेदभागसे लेकर ) वेदसे रहित भी होते हैं । कषायकी अपेक्षा वे सम्पूर्ण कषायोंसे युक्त होते हैं । परन्तु कोई ( ग्यारहवें गुणस्थानसे ) कषायसे रहित भी होते हैं ॥ २९४१ ॥ ये मनुष्य सम्पूर्ण ज्ञानों, संयमों, दर्शनों, लेश्याओं, अलेश्यत्व, भव्यत्व, अभव्यत्व और छह प्रकारके सम्यक्त्वसे सहित होते हैं ।। २९४२ ॥ ___ सब मनुष्य संज्ञामार्गणाकी अपेक्षा संज्ञी, और आहारमार्गणाकी अपेक्षा आहारक एवं अनाहारक भी होते हैं । वे सब ज्ञानोपयोग और दर्शनोपयोगसे सहित होते हैं ॥ २९४३ ॥ गुणस्थानादिकोंका वर्णन समाप्त हुआ। १ब छगुण . २द मेलच्छम्मि, ब मेलिच्छम्मि. ३ द ब पजत्तियअपज्जत्ती. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001274
Book TitleTiloy Pannati Part 1
Original Sutra AuthorVrushabhacharya
AuthorA N Upadhye, Hiralal Jain
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1956
Total Pages598
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Geography
File Size12 MB
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