SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 525
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४५८ ] तिलोयपण्णत्ती [ ४. २५१० जे भुंजंति विहीणा मोणेणं घोरपाव संलग्गा । अणअण्णदरुदयादो सम्मत्तं जे विणासंति ॥ २५१० ते कालवसं पत्ता फलेण पावाण विसमपाकाणं । उप्पज्जंति कुरुवा कुमाणुसा जलहिदीवेसुं ॥ २५११ गब्भादो ते मणुवा जुगलंजुगला सुहेण णिस्सरिया । तिरिया समुच्चिदेहिं दिणेहिं धारंति तारुण्णं ॥ २५१२ बेधणुसहस्सेतुंगा मंदकसाया पिरंगुसामलया । सब्वे ते पल्लाऊ कुभोगभूमीए चेट्ठति ॥ २५१३ तब्भूमिजोग्गभोगं भोत्तूर्ण आउसस्स अवसाणे । कालवसं संपत्ता जायंते भवणतिदयम्मि ॥ २५१४ सम्मर्द्दसणरयणं गहियं जेहिं णरेहिं तिरिएहिं । दीवेसु चउविहेसुं सोहम्मदुगम्मि जायंते ॥ २५१५. णवजोयणदीहत्ता तदद्धवासा तदद्धबहलत्ता । तेसु णईमुहमच्छा पत्तेक्कं होंति पउरयरी || २५१६ ९ ।९ ९ २ ४ लवणो वहिबहुमज्झे मच्छाणं दीहवासबहलाणिं । सरिमुहमच्छाहिंतो हवंति दुगुणप्पमाणाणिं ॥ २५१७ सेसेसुं ठाणेसुं बहुविहउग्गाहणविणदा मच्छा । मयरसिसुमारकच्छव मंडूकप्पहृदिणो अण्णे ॥ २५१८ होकर सुवर्णादिकको हर्षसे प्रहण करते हैं, जो संयमी के वेषसे कन्याविवाहादिक करते हैं, जो मानके बिना भोजन करते हैं, जो घोर पापमें संलग्न रहते हैं, जो अनन्तानुबंधिचतुष्टयमें से किसी एकके उदित होनेसे सम्यक्त्वको नष्ट करते हैं, वे मृत्युको प्राप्त होकर विषम परिपाकवाले पापकर्मों के फलसे समुद्रके इन द्वीपोंमें कुत्सित रूपसे युक्त कुमानुष उत्पन्न होते हैं || २५०३-२५११ ॥ वे मनुष्य व तिर्यंच युगल - युगलरूपमें गर्भसे सुखपूर्वक निकलकर, अर्थात् जन्म लेकर, समुचित दिनोंमें यौवन अवस्थाको धारण करते हैं ॥ २५१२ ॥ वे सब कुमानुष दो हजार धनुष ऊंचे, मन्दकषायी, प्रियंगुके समान श्यामल और एक पल्यप्रमाण आयुसे युक्त होकर कुभोगभूमिमें स्थित रहते हैं ॥ २५१३ ॥ पश्चात् वे उस भूमिके योग्य भोगोंको भोगकर आयुके अन्तमें मरणको प्राप्त हो भवन त्रिक देवों में उत्पन्न होते हैं ॥ २५१४ ॥ जिन मनुष्य व तिर्यंचोंने इन चार प्रकारके द्वीपोंमें सम्यद्दर्शनरूप रत्नको ग्रहण करलिया है वे सौधर्मयुगल में उत्पन्न होते हैं ॥ २५१५ ॥ लवण समुद्र में अधिकतर नदीमुखमत्स्य प्रत्येक नौ योजन लंबे, इससे आधे अर्थात् साढ़े चार योजन विस्तारवाले, और इससे आधे अर्थात सवा दो योजन मोटे होते हैं ॥ २५१६ ॥ दीर्घता ९, व्यास ४३, बांहल्य २ यो । लवणसमुद्रके बहुमध्यभागमें मत्स्योंकी लंबाई, विस्तार और बाहल्य नदीमुखमत्स्यों की अपेक्षा दुगुणे प्रमाणसे संयुक्त हैं ॥ २५१७ ॥ शेष स्थानोंमें बहुत प्रकारकी अवगाहनासे अन्वित मत्स्य, मकर, शिशुमार, कछवा और मेंढक आदि अन्य जलजन्तु होते हैं ।। २५१८ ॥ १ द ब जं धणुसहस्स. २ द ब पउरधरा ३ द ब उग्गणंणिदा. ४ द ब मंसिसुमार. ५ द ब अण्णो. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001274
Book TitleTiloy Pannati Part 1
Original Sutra AuthorVrushabhacharya
AuthorA N Upadhye, Hiralal Jain
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1956
Total Pages598
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Geography
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy