________________
-१. २५०९]
चउत्थो महाधियारो
[१५७
गोमुहमेसमुहक्खा दकि णिधिदीवेसुं। मेघमुहा विज्जुमुहा सिहरिगिरिदस्स पुज्वपच्छिमदो ॥ २४९८ दप्पणगयसरिसमुहा उत्तरवेयपणिधिभागगदा । अभंतरम्मि भागे बाहिरए होंति तम्मेत्ता ॥ २४९९ मिच्छत्तम्मि रता णं मंदकसाया पियंवदा कुडिला । धम्मफलं मग्गंता मिच्छादेवेसु भत्तिपरा ॥ २५०० सुद्धोदणसलिलोदणकंजियमसणादिकट्ठसुकिलिट्ठा । पंचम्गितवं विसमं कायकिलेसं च कुन्वंता ॥ २५०१ सम्मत्तरयणहीणा कुमाणुसा लवणजलधिदीवेसुं । उप्पजति अधण्णी अण्णाणजल म्मि मज्जंता ॥२५०२ अदिमाणगविदा जे सारण कुणंति किंचि अवमाण' । सम्मत्ततवजुदाणं' जे णिग्गंथाण दूसणा देति ॥२५०३ जे मायाचाररदा संजमतवजोगवजिदा पावा । इडिरससादगारवगरुवा जे मोहमावण्णा ॥ २५०४ थूलसुहमादिचारं जे णालोचंति गुरुजणसमीवे । सज्झायवंदणामो जे गुरुसहिदा ण कुन्वति ॥ २५०५ . जे छंडिय मुणिसंघ वसंति एकाकिणो दुराचारा । जे कोहेण य कलई सम्वेसितो पकुचंति ॥ २५०६ माहारसण्णसत्ता लोहकसाएण जणिदमोहा जे । धरिऊणं जिणलिंग पावं कुम्वति जे घोरं ॥ २५०७ जे कुवंति ण भत्ति अरहताणं तहेव साहूणं । जे वच्छल्लविहीणा चाउब्वण्णाम्म संघम्मि ॥ २५०८ जे गेण्इंति सुवण्णप्पहुदि जिणलिंगधारिणो हिट्ठाँ। कण्णाविवाहपहुदि संजदरूवेण जे पकुवति ॥ २५०९
दक्षिणविजया के प्रणिधिभागस्थ द्वीपोंमें रहनेवाले कुमानुष गोमुख और मेषमुख, तथा शिखरीपर्वतके पूर्व-पश्चिम द्वीपोंमें रहनेवाले वे कुमानुष मेघमुख और विद्युन्मुख होते हैं ॥ २४९८॥
उत्तरविजयार्द्धके प्रणिधिभागोंमें स्थित वे कुमानुष क्रमसे दर्पण और हाथ के सदृश मुखवाले हैं। जितने द्वीप व उनमें रहनेवाले कुमानुष अभ्यन्तर भागमें हैं, उतने ही वे बाह्य भागमें भी विद्यमान हैं ॥ २४९९ ॥
मिथ्यात्वमें रत, मन्दकषायी, प्रिय बोलनेवाले, कुटिल, धर्म-फलको खोजनेवाले, मिथ्यादेवोंकी भक्तिमें तत्पर; शुद्ध ओदन, सलिलोदन व कॉजी खानेके कष्टसे संकेशको प्राप्त, विषम पंचाग्नितप व कायक्लेशको करनेवाले, और सम्यक्त्वरूपी रत्नसे रहित अधन्य जीव अज्ञानरूपी जलमें डूबते हुए लवणसमुद्रके द्वीपोंमें कुमानुष उत्पन्न होते हैं ।। २५००-२५०२ ॥
इसके अतिरिक्त जो लोग तीव्र अभिमानसे गर्वित होकर सम्यक्त्व और तपसे युक्त साधुओंका किंचित् भी अपमान करते हैं, जो दिगम्बर साधुओंकी निन्दा करते हैं, जो पापी संयम, तप व प्रतिमायोगसे रहित होकर मायाचारमें रत रहते हैं, जो ऋद्धि, रस और सात इन तीन गारवोंसे महान् होते हुए मोहको प्राप्त हैं, जो स्थूल व सूक्ष्म दोषोंकी गुरुजनोंके समीपमें आलोचना नहीं करते हैं, जो गुरुके साथ स्वाध्याय व वंदनाकर्मको नहीं करते हैं, जो दुराचारी मुनि संघको छोड़कर एकाकी रहते हैं, जो क्रोधसे सबसे कलह करते हैं, जो आहारसंज्ञामें आसक्त व लोभकषायसे मोहको प्राप्त होते हैं, जो जिनलिंगको धारणकर घोर पापको करते हैं, जो अरहन्त तथा साधुओंकी भक्ति नहीं करते हैं; जो चातुर्वर्ण्य संघके विषयमें वात्सल्यभावसे विहीन होते हैं; जो जिन लिंगके धारी
१ द ब वेदीसु. २ द ब तिमिरता. ३ ब अधण्णम्मा. ४ द ब अवमाणा. ५ द ब सम्मत्ततवजुत्ताण. ६ द ब सव्वेसिते. ७ द ब दिट्ठा.
TP58.
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org