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________________ ४५२ ] तिलोयपण्णत्ती [ ४. २४५६ वण्णिदसुराण णयरीपणिधीए जलहिदुतडसिहरेसुं । वज्जपुढवीए उवरिं तेत्तियणयराणि के वि भासति ।। २४५६ पाठान्तरम् । बादालसहस्साणि जोयणया जलहिदोतडाहिंतो । पविसिय खिदिविवराणं' पासेसुं होंति अट्ठगिरी ॥ २४५७ ४२००० । सोलससहस्सअधियं जोयणलक्खं च तिरियविक्खंभो । पत्तेक्काणं जगदीगिरीणि मिलिंद्रेण दोलक्खा || २४५८ ११६००० । ८४००० | २००००० । ते कुंभद्धसरिच्छा सेला जोयणसहस्समुत्तुंगा । एदाणं णामौहूं ठाणविभागं च भासेमि ॥ २४५९ १००० । पादालस्स दिसाए पच्छिमए कोत्तुभो असदि सेलो । पुग्वाए कोत्थुभासो दोण्णि वि ते वज्जमयमूला ॥ २४६० मज्झिमरजदंरजिदा भग्गेसुं विविहदिव्वरयणमया । चरिभट्टालय चारू तडवेदीतोरणेहिं जुदा ॥ २४६१ ताणं हेट्टिममज्झिमउवरिमवासाणि संपइ पणट्ट । तेसुं वरपासादा विचित्तरूवा विरायंति ॥ २४६२ समुद्र के दोनों किनारों और शिखरपर बतलाई गई देवोंकी नगरियोंके पार्श्वभाग में वज्रमय पृथिवीके ऊपर भी इतनी ही नगरियां हैं, ऐसा कितने ही आचार्य वर्णन करते हैं ।। २४५६ ॥ पाठान्तर । समुद्र के दोनों किनारोंसें ब्यालीस हजार योजन प्रमाण प्रवेश करके पातालोंके पार्श्वभागों में आठ पर्वत हैं || २४५७ ॥ ४२००० । प्रत्येक पर्वतका तिरछा विस्तार एक लाख सोलह हजार योजनप्रमाण है । इसप्रकार जगतीसे पर्वतों तक तथा पर्वतोंका विस्तार मिलकर दो लाख योजन होता है ॥ २४५८ ॥ पर्वतविस्तार ११६००० । जगती से पर्वतका अंतराल ४२०००+४२००० = ८४००० । ११६०००+ ८४००० = २००००० । अर्धघटके सदृश वे पर्वत एक हजार योजन ऊंचे हैं । इनके नाम और स्थान विभागको कहते हैं ॥ २४५९ १००० । पातालकी पश्चिमदिशामें कौस्तुभ और पूर्वदिशामें कौस्तुभास पर्वत स्थित है । वे दोनों पर्वत वज्रमय मूलभाग से संयुक्त हैं || २४६० ॥ ये पर्वत मध्य में रजतसे रचित, अप्रभागों में विविध प्रकारके दिव्य रत्नोंसे निर्मित, मार्ग अट्टालयोंसे सुन्दर, तथा तटवेदी एवं तोरणोंसे युक्त हैं ॥ २४६१ ॥ इन पर्वताका नीचे, मध्य में और ऊपर जो कुछ विस्तार है, उसका प्रमाण इस समय नष्ट गया है । इनके ऊपर विचित्र रूपवाले उत्तम प्रासाद विराजमान हैं ॥ २४६२ ॥ 1 १ दखिदिवराणं. २ द मिलिदोण दोलक्खा, ब मिलिदोलक्खा ३ द ब णामाए ४ द ब मसदि. ५ द ब कुत्थभासो. ६ द ब पणट्टो. ७ द व 'पासादो. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001274
Book TitleTiloy Pannati Part 1
Original Sutra AuthorVrushabhacharya
AuthorA N Upadhye, Hiralal Jain
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1956
Total Pages598
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Geography
File Size12 MB
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