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________________ -४. २२७६] चउत्थो महाधियारो [ ४३१ खेमाणामा गयरी मज्जाखंडस्स होदि मज्झम्मि । एसा अणाइणिहणा वररयणखचिदरमणिज्जा ॥ २२६८ कणयमओ पायारो समतदो तीए होदि रमणिजो'। चरियट्टालयचारू विविहपदायाए कलप्पजुदो॥ २२६९ कमलवणमंडिदाए संजुत्तो खादियाहि विउलाए । कुसुमफलसोहिदेहिं सोहिल्लो बहुविद्दवणेहिं ॥ २२७० तीए पमाणजोयण णवमेत्ते वरपुरीय वित्थारो। बारसजोयणमेत्तं दीहत्तं दक्खिणुत्तरदिसासु ॥ २२७१ एक्केवदिसाभागे वणसंडा विविहकुसुमफलपुण्णा । सटिजुदतिसयसंखों पुरीए कीडंतवरमिहुणा ॥ २२७२ एक्कसहस्सं गोउरदाराणं चक्कवट्टिणयरीए । वररयणणिम्मिदाणं खुल्लयदाराण पंचसया ॥ २२७३ १०००। ५००। बारससहस्समेत्ता वीहीओ वरपुरीए रेहति । एक्कसहस्सपमाणा चउघट्टा सुहदसंचारा ॥ २२७४ १२०००। १०००। फलिहप्पवालमरगयचामीयरपउमरायपहुदिमया । वरतोरणेहिं रम्मा पासादा तत्थ वित्थिण्णा ॥ २२७५ पोक्खरणीवावीहिं कमलुप्पलकुमुदगंधसुरही सा । संपुण्णा णयरी णं णचंतविचित्तधयमाला ॥ २२७६ आर्यखण्डके मध्यमें क्षेमा नामक नगरी है । यह अनादिनिधन और उत्तम रत्नोंसे खचित ( भवनोंसे ) रमणीय है ॥ २२६८ ॥ ____ इसके चारों ओर मार्ग व अट्टालयोंसे सुन्दर और विविध प्रकारकी पताकाओंके समूहसे संयुक्त रमणीय सुवर्णमय प्राकार है ॥ २२६९ ॥ यह प्राकार कमलवनोंसे मण्डित ऐसी विस्तृत खाईसे संयुक्त और फूल व फलोंसे शोभित बहुत प्रकारके वनोंसे शोभायमान है ॥ २२७० ॥ उस उत्तम पुरीका विस्तार नौ प्रमाणयोजनमात्र और दक्षिण-उत्तर दिशाओंमें लम्बाई बारह योजनमात्र है ॥ २२७१ ॥ इस नगरीके प्रत्येक दिशाभागमें विविध प्रकारके फल-फूलोंसे परिपूर्ण और क्रीडा करते हुए उत्तम [ स्त्री-पुरुषोंके ] युगलोंसे सहित तीनसौ साठ संख्याप्रमाण वनसमूह स्थित हैं ॥२२७२॥ ३६० । चक्रवर्तीकी नगरीमें उत्कृष्ट रत्नोंसे निर्मित एक हजार गोपुरद्वार और पांचसौ क्षुद्र द्वार हैं ॥ २२७३ ॥ १००० । ५०० । ___ उस उत्कृष्ट पुरीमें बारह हजारप्रमाण वीथियां और एक हजारप्रमाण सुखप्रद गमनसे संयुक्त चतुष्पथ हैं ॥ २२७४ ॥ १२००० । १०००। वहांपर स्फटिक, प्रवाल, मरकत, सुवर्ण एवं पद्मरागादिसे निर्मित और उत्तम तोरणोंसे रमणीय विस्तीर्ण प्रासाद हैं ।। २२७५ ॥ नृत्य करती हुई विचित्र ध्वजाओंके समूहसे सहित वह नगरी निश्चय ही कमल, उत्पल और कुमुदोंकी गंधसे सुगंधित ऐसी पुष्करिणी तथा वापिकाओंसे परिपूर्ण है ॥ २२७६ ॥ १ द ब रमणिजा. २ द ब जुदा. ३ द 'जुदतीससंखा, ब जुदतीयसंखा. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001274
Book TitleTiloy Pannati Part 1
Original Sutra AuthorVrushabhacharya
AuthorA N Upadhye, Hiralal Jain
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1956
Total Pages598
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Geography
File Size12 MB
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