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________________ ४१४] तिलोयपण्णत्ती [४. २११४ तत्तो पच्छिमभागे कणयमया भइसालवणवेदी। णीलणिसहाचलाण उववणवेदीए' संलग्गा ॥२११४ तेत्तीससहस्साई जोयणया छस्सयाई चुलसीदी । उणवीसहिदामो चउक्कलाओ वेदीए दीहत्तं ॥२११५ उवरिम्म णीलगिरिणो दिग्वदहो केसरि त्ति विक्खादो। तस्स य दक्खिणदारेणं गच्छदि वरणई सीदा ॥२११६ सीदोदाय सरिच्छा पडिऊणं सीदकुंडेउवरिम्म । तदक्खिणदारेण णिकामदि दक्षिणमुहेणं ॥ २११७ णिकमिदूर्ण वच्चदि दक्खिणभागेण जाव मेरुगिरिं । दोकोसेहिमपाविय पुब्वमुही वलदि तत्तिअंतरिदा ॥ २११८ सेलेम्मि मालवंते गुहाए दक्खिणमुहाए पविसेदि । णिस्सरिदूणं गच्छदि कुटिला य मेरुमझतं ॥२११९ तग्गिरिमापदेसं णियमझपदेसपणिधियं कह' । पुब्वमुहेणं गच्छदि पुच्चविदेहस्स बहुमज्झे ।। २१२० जंबूदीवस्स तदो जगदीबिलदारएण संचरियं । परिवारणदीहि जुदा पविसदि लवणण्णवं सीदा ॥ २१२१ रुंदावगाढपहुदि तह वेदीउववणादिकं सव्वं । सीदोदासारिच्छं सीदणदीए वि णादग्वं ॥ २१२२ णीलाचलदक्खिणदो एक गंतूण जोयणसपस्सं । सीदादोपासेसं चेटुंते दोण्णि जमकगिरी ।। २१२३ १०००। - इसके आगे पश्चिम भागमें नील व निषध पर्वतकी उपवनवेदीसे संलग्न सुवर्णमय . मद्रशालवनवेदी है ॥ २११४ ॥ वेदीकी लंबाई तेतीस हजार छहसौ चौरासी योजन और उन्नीससे भाजित चार कलाप्रमाण है ॥ २११५॥ ___ नीलपर्वतके ऊपर केसरी नामसे प्रसिद्ध दिव्य द्रह है। उसके दक्षिणद्वारसे सीता नामक उत्तम नदी निकलती है ॥ २११६ ॥ सीतानदी सीतोदाके समान ही सीताकुंडमें गिरकर दक्षिणमुख होती हुई उसके दक्षिणद्वारसे निकलती है ॥ २११७ ॥ कुंडसे निकलकर वह नदी मेरुपर्वत तक दक्षिणकी ओरसे जाती हुई दो कोसोंसे उस मेरुपर्वतको न पाकर उतनेमात्र अन्तरसहित पूर्वकी ओर मुड़ जाती है ॥ २११८॥ .. उक्त नदी माल्यवंतपर्वतकी दक्षिणमुखवाली गुफामें प्रवेश करती है । पश्चात् उस गुफामेंसे निकलकर कुटिलरूपसे मेरुपर्वतके मध्यभाग तक जाती है ॥ २११९ ॥ उस पर्वतके मध्यभागको अपना मध्यप्रदेशप्रणिधि करके वह सीतानदी पूर्वविदेहके ठीक बीचमेंसे पूर्वकी ओर जाती है ॥ २१२० ॥ अनन्तर जम्बूद्वीपकी जगतीके बिलद्वारमेंसे जाकर वह सीतानदी परिवारनदियोंसे युक्त होती हुई लवणसमुद्रमें प्रवेश करती है ।। २१२१ ॥ सीतानदीका विस्तार व गहराई आदि तथा उसकी वेदी और उपवनादिक सब सीतोदाके सदृश ही जानना चाहिये ॥ २१२२ ।। नीलपर्वतके दक्षिणमें एक हजार योजन जाकर सीताके दोनों पार्श्वभागोंमें दो यमकगिरि स्थित हैं ।। २१२३ ।। १०००। १ व वेदीओ. २ द ब सीदकूड'. ३ द ब सीलम्मि. ४ब कुटिलाया. ५ द ब कूडो. ६ द ब णादव्वा. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001274
Book TitleTiloy Pannati Part 1
Original Sutra AuthorVrushabhacharya
AuthorA N Upadhye, Hiralal Jain
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1956
Total Pages598
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Geography
File Size12 MB
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