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________________ -४. १९३९ ] चउत्थो महाधियारो [ ३९३ · तप्फलिहवीहिमझे वेरुलियमयाणि माणथंभाणि । वीहिं पडि पत्तेयं विचित्तरूवाणि रेहति ॥ १९३१ चामरघंटाकिंकिणिकेतणपहुदीहिं उवरि संजुत्ता । सोहंति माणथंभा चउवेदीदारतोरणेहिं जुदा ॥ १९३२ ताणं मूले उवरि जिणिंदपडिमाओ चउदिसतेसुं। वररयणणिम्मिदाओ जयंतु जयथुणिदचरिदाओ ।। १९३३ कप्पमाहि परिवेढिय साला वररयणणियरणिम्मविदों। चेहदि चरियद्यालयणाणाविहधयवडाडोवा ॥ १९३४ चुलियदक्षिणभाए पच्छिमभायम्मि उत्तरविभागे। एकेकं जिणभवणं पुव्वम्हि व वण्णणेहिं जुदं ॥ १९३५ एवं संखेवेणं पंडुगवणवण्णणाओ भणिदाओ। वित्थारवण्णणेसुं सक्को वि ण सक्कदे तस्स ॥ १९३६ पंडुगवणस्स हेतु छत्तीससहस्सजोयणा गंतुं । सोमणसं णाम वर्ण मेरुं परिवेढिदूण चेटेदे ॥१९३७ ३६०००। पणसयजोयणरुंदं चामीयरवेदियाहिं परियरियं । चउगोउरसंजुत्तं खुल्लयदारेहिं रमणिज्जं ॥ १९३८ चत्तारि सहस्साणि बाहत्तरिजुत्तदुसयजोयणया । एकरसहिदट्टकला' विक्खंभो बाहिरो तस्स ॥ १९३९ ४२७२ । ८। ११ उन स्फटिकमणिमय वीथियोंके मध्यमेंसे प्रत्येक वीथीके प्रति विचित्र रूपवाले वैडूर्यमणिमय मानस्तम्भ सुशोभित हैं ॥ १९३१ ॥ चार वेदीद्वार और तोरणोंसे युक्त ये मानस्तम्भ ऊपर चँवर, घंटा, किंकिणी और ध्वजा इत्यादिसे संयुक्त होते हुए शोभायमान होते हैं ॥ १९३२ ॥ इन मानस्तम्भोंके नीचे और ऊपर चारों दिशाओंमें विराजमान, उत्तम रत्नोंसे निर्मित और जगसे कीर्तित चरित्रसे संयुक्त जिनेन्द्रप्रतिमायें जयवन्त होवें ॥ १९३३ ॥ मार्ग व अट्टालिकाओंसे युक्त, नाना प्रकारकी ध्वजा-पताकाओंके आटोपसे सुशोभित, और श्रेष्ठ रत्नसमूहसे निर्मित कोट इस कल्पमहीको वेष्टित करके स्थित है ॥ १९३४ ॥ चूलिकाके दक्षिण, पश्चिम, और उत्तरभागमें भी पूर्वदिशावर्ती जिनभवनके समान वर्णनोंसे संयुक्त एक एक जिनभवन है ॥ १९३५ ॥ __इसप्रकार यहां संक्षेपसे पाण्डुकवनका वर्णन किया गया है । उसका विस्तारसे वर्णन करनेके लिये तो इन्द्र भी समर्थ नहीं होसकता है ॥ १९३६ ॥ पाण्डुकवन के नीचे छत्तीस हजार योजन जाकर सौमनस नामक वन मेरुको वेष्टित करके स्थित है ॥ १९३७ ॥ ३६०००। ___ यह सौमनस वन पांचसौ योजनप्रमाण विस्तारसे सहित, सुवर्णमय वेदिकाओंसे वेष्टित, चार गोपुरोंसे संयुक्त और क्षुद्रद्वारोंसे रमणीय है ॥ १९३८ ॥ उसका बाह्यविस्तार चार हजार दोसौ बहत्तर योजन और ग्यारहसे भाजित आठ कलाप्रमाण ॥१९३९ ॥ ४२७२।। १द तप्पलिहि. २ दबणिम्मविदो. ३ दबवण्णणाणि. ४ बहिद अट्ट. TP 50. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001274
Book TitleTiloy Pannati Part 1
Original Sutra AuthorVrushabhacharya
AuthorA N Upadhye, Hiralal Jain
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1956
Total Pages598
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Geography
File Size12 MB
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