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________________ तिलोयपण्णत्ती [४. १९०३ पीढस्स चउदिसासु बारसवेदीओ होंति भूमियले । वरगोउरामो तेत्तियमेत्ताओ पीढउद्धृम्मि॥ १९०३ पीढस्सुवरिमभागे सोलसगैब्बूदिमेत्तउच्छेहो । सिद्धंतो णामेणं चेत्तदुमो दिव्ववरतेओ ॥ १९०४ खंधुच्छेहो कोसा चत्तारो बहलमेक्कगवूदी। बारसकोसा साहादीहत्तं चेय विद्यालं ॥ १९०५ को ।। १ । १२ । १२ । इगिलक्खं चालीसं सहस्सया इगिसयं च वीसजुदं। तस्स परिवाररुक्खा पीढोवरि तप्पमाणधरी ॥ १९०६ १४०१२० । विविहवररयणसाहा मरगयपत्ता य पउमरायफला। चामीयररजदमयाकुसुमजुदा सयलकालं ते ॥ १९०७ सब्वे अणाइणिहणा पुढविमया दिवचेत्तवररुक्खा । जीवुप्पत्तिलयाणं कारणभूदा सई भवंति ॥ १९०८ रुक्खाण चउदिसासु पत्तेकं विविहरयणरइदाओ। जिणसिद्धप्पडिमाओ जयंतु चत्तारि चत्तारि ॥ १९०९ चेत्ततरूण पुरदो दिव्वं पीढं हवेदि कणयमयं । उच्छेहदीहवासा तस्स य उच्छण्णउवएसा ॥ १९१०। पीढस्स चउदिसासुबारस वेदी य होंति भूमियले। चरिअद्यालयगोउरदुवारतोरणविचित्ताओ ॥ १९११ -ommitingprelimin ar. nagi.mmmigration पीठके चारों ओर उत्तम गोपुरोंसे युक्त बारह वेदियां भूमितलपर और इतनी ही पीठक ऊपर हैं ।। १९०३ ॥ पीठके उपरिम भागपर सोलह कोसप्रमाण ऊंचा दिव्य व उत्तम तेजको धारण करनेवाला सिद्धार्थ नामक चैत्यवृक्ष है ॥ १९०४ ॥ को. १६ । चैत्यवृक्षके स्कन्धकी उंचाई चार कोस, बाहल्य एक कोस, और शाखाओंकी लंबाई व अन्तराल बारह कोसप्रमाण है ॥ १९०५ ॥ को. ४ । १ । १२ । १२ । पीठके ऊपर इसी प्रमाणको धारण करनेवाले एक लाख चालीस हजार एकसौ बीस इसके परिवारवृक्ष हैं ॥ १९०६ ॥ १४०१२० । ये वृक्ष विविध प्रकारके उत्तम रत्नोंसे निर्मित शाखाओं, मरकतमणिमय पत्तों, पद्मरागमणिमय फलों और सुवर्ण एवं चांदीसे निर्मित पुष्पोंसे सदैव संयुक्त रहते हैं || १९०७ ॥ ये सब उत्तम दिव्य चैत्यवृक्ष अनादिनिधन और पृथिवीरूप होते हुए जीवोंकी उत्पत्ति और विनाशके स्वयं कारण होते हैं ॥ १९०८ ॥ इन वृक्षोंमें प्रत्येक वृक्षके चारों ओर विविध प्रकारके रत्नोंसे रचित चार चार जिन और सिद्धोंकी प्रतिमायें विराजमान हैं । ये प्रतिमायें जयवन्त होवें ॥ १९०९ ॥ ___ चैत्यवृक्षोंके आगे सुवर्णमय दिव्य पीठ है । इसकी उंचाई, लंबाई और विस्तारादिकका उपदेश मष्ट हो गया है । १९१०॥ पीठके चारों ओर भूमितलपर मार्ग व अट्टालिकाओं, गोपुरद्वारों और तोरणोंसे विचित्र बारह वेदियां हैं ॥ १९११॥ १ द ब पीढोवरिम'. द ब सोलसगम्मादि'. ३ द ब खंडुच्छेहो. ४ द ब गम्मादी. ५ द ब धरो. ६ दब सोहा. ७ दले रुपंति पयाणं, बने रुपंति य भयाण. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001274
Book TitleTiloy Pannati Part 1
Original Sutra AuthorVrushabhacharya
AuthorA N Upadhye, Hiralal Jain
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1956
Total Pages598
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Geography
File Size12 MB
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