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________________ ३८२] तिलोयपण्णत्ती [४. १८३१ उच्छेहवासपहुदी पंडुसिलाए जहा तहा तीए । अवरविदेहजिणाणं अभिसेयं तत्थ कुब्वंति ॥ १८३१ णइरिदिदिसाविभागे रत्तसिला णाम होदि कणयमई । पुवावरेसु दीहं वित्थारो दक्षिणुत्तरे तीए ॥ १८३२ पंडुसिलासारिच्छा तीए वित्थारउदयपहुदीओ । एरावंदयजिणाणं अभिसेयं तत्थ कुव्वंति ।। १८३३ पवणदिसाए होदि हु रुहिरमई रत्तकंबला णाम । उत्तरदक्खिणदीहा पुब्बावरभागवित्थिण्णा ॥ १८३४ पंडुसिलाय समाणा वित्थारुच्छेहपहुदिया तीए । पुवविदेहजिणाणं अभिसेयं तत्थ कुब्वंति ॥ १८३५ पुवदिसाए चलियपासे पंडुगवणम्मि पासादो। लोहिदणामो वट्टो वासजुदो तीसकोसाणि ।। १८३६ पुव्वासे कोसुदओ तप्परिही उदिकोसपरिमाणा। विविहवररयणखचिदो णाणाविह सयणाणि भासणाणिं अमिदाणि णीरजाणि मउगाणि । वरपाससंजुदाणिं पउराणि तत्थ चेटुंति ॥ १८३८ तम्मंदिरबहुमज्झे कीडणलेलो विचित्तरयणमओ । सक्कस्स लोयपालो सोमो कीडेदि पुवदिसणाहो ॥ १८३९ उंचाई व विस्तारादिक जिसप्रकार पाण्डुकशिलाका है, उसीप्रकार उस शिलाका भी है । इस शिलाके ऊपर इन्द्र अपरविदेहके तीर्थंकरोंका अभिषेक करते हैं ॥ १८३१ ॥ नैऋत्य दिशाभागमें रक्तशिला नामक सुवर्णमयी शिला है, जो पूर्व-पश्चिममें दीर्घ और दक्षिण-उत्तरमें विस्तृत है ॥ १८३२ ॥ इसका विस्तार व उंचाई आदि पाण्डुकशिलाके सदृश हैं। यहांपर इन्द्र ऐरावतक्षेत्रमें उत्पन्न हुए तीर्थंकरोंका अभिषेक करते हैं ॥ १८३३ ॥ वायव्यदिशामें उत्तर-दक्षिणदीर्घ और पूर्व-पश्चिम भागमें विस्तीर्ण रक्तकंबला नामक रुधिरमयी शिला है ॥ १८३४ ॥ इसका विस्तार और उंचाई आदिक पाण्डुकशिलाके सदृश हैं । यहांपर इन्द्र पूर्व विदेहमें उत्पन्न हुए तीर्थंकरोंका अभिषेक करते हैं ॥ १८३५ ॥ पाण्डुकवनमें चूलिकाके पास पूर्वदिशामें तीस कोसप्रमाण विस्तारसे सहित लोहित नामक वृत्ताकार प्रासाद है ॥ १८३६ ॥ ३० । विविध प्रकारके उत्तम रत्नोंसे खचित और नाना प्रकारके धूपोंके गन्धसे व्याप्त यह पूर्वमुख प्रासाद एक कोस ऊंचा है, तथा इसकी परिधि नब्बै कोसप्रमाण है ।। १८३७ ॥ उस भवनमें नीरज (निर्मल ), मृदुल, उत्तम पार्श्वभागसंयुक्त एवं उत्कृष्ट अपरिमित शय्यायें व आसन स्थित हैं ॥ १८३८॥ इस भवनके बहुमध्यभागमें विचित्र रत्नोंसे निर्मित एक क्रीडाशैल है। इस पर्वतके ऊपर पूर्वदिशाका स्वामी, सौधर्म इन्द्रका सोम नामक लोकपाल, क्रीडा करता है ॥ १८३९ ॥ १ ब एराउदय. २ द ब वासजुदा. ३ द ब कासोणं. ४ द पुण्णासे. ५ ब मउणाणि. ६ द ब सेला. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001274
Book TitleTiloy Pannati Part 1
Original Sutra AuthorVrushabhacharya
AuthorA N Upadhye, Hiralal Jain
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1956
Total Pages598
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Geography
File Size12 MB
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