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________________ -४. १८३०] चउत्थो महाधियारो [ ३८१ तीएं बहुमझदेसे तुंग सीहासणं विविहसोहं । सरसमयतरणिमंडलसंकासफुरंतकिरणोघं ॥ १८२२ सिंहासणस्स दोसु पासेसु दिग्वरयणरइदाई । भद्दासणाई णिब्भरफुरतवरकिरणणिवहाणि ॥ १८२३ पुह पुह पीढतयस्स य उच्छेहो पणसयाणि कोदंडा । तेत्तियमेत्तो मूले वासो सिहरे अ तस्सद्धं ॥ १८२४ ५००। ५०० । २५० । धवलादवत्तजुत्ता ते पीढा पायपीढसोहिल्ला । मंगलदग्वेहि जुदा चामरघंटापयारहिं ॥ १८२५ सव्वे पुख्वाहिमुहा पीढवरा तिहुवणस्स विम्हयरा । एक्कमुहएक्कजीहो को सक्कइ वण्णिदुं ताणि ॥ १८२६ भरहे खेत्ते जादं तित्थयरकुमारकं गहेदूणं । सक्कप्पहुदी इंदा णिति विभूदीए विविहाए ॥ १८२७ मेरुप्पदाहिणेणं गच्छिय सविद पंडुयसिलाएँ । उवरि मज्झिमसिंहासणए वासंति जिणणाई॥१८२८ दक्षिणपीढे सक्को ईसाणिदो वि उत्तरापीढे । बइसिय अभिसेयाई कुव्वंति महाविसोहीए ॥ १८२९ पंडूकंबलणामा रजदमई सिहिदिसामुहम्मि सिला । उत्तरदक्खिणदीहा पुव्वावरभायविस्थिण्णा ॥ १८३० इस पाण्डुकशिलाके बहुमध्यदेशमें विविध प्रकारकी शोभासे सहित और शरत्कालीन सूर्यमण्डलके सदृश प्रकाशमान किरणसमूहसे संयुक्त उन्नत सिंहासन स्थित हैं ॥ १८२२ ॥ सिंहासनके दोनों पार्श्वभागोंमें अत्यन्त प्रकाशमान उत्तम किरणसमूहसे संयुक्त एवं दिव्य रत्नोंसे रचे गये भद्रासन विद्यमान हैं ॥ १८२३ ॥ तीनों पीठोंकी उंचाई पृथक् पृथक् पांचसौ धनुष, मूलमें विस्तार भी इतना अर्थात् पांचसौ धनुष, तथा शिखरपर इससे आधा विस्तार है ॥ १८२४ ॥ ५०० । ५०० । २५० । पादपीठोंसे शोभायमान वे पीठ धवल छत्र व चामर-घंटादिरूप मंगलद्रव्योंसे संयुक्त हैं ॥ १८२५ ॥ वे सब पूर्वाभिमुख उत्तम पीठ तीनों लोकोंको विस्मित करनेवाले हैं। इन पीठोंका वर्णन करने के लिये एक मुख और एक ही जिह्वासे सहित कौन समर्थ हो सकता है ? ॥ १८२६ ॥ ___ सौधर्मादिक इन्द्र भरतक्षेत्रमें उत्पन्न हुए तीर्थंकरकुमारको ग्रहण करके विविध प्रकारकी विभूतिके साथ ले जाते हैं ॥ १८२७ ॥ ___ सब इन्द्र मेरुकी प्रदक्षिणा करते हुए जाकर पाण्डुक शिलाके ऊपर मध्यम सिंहासनपर जिनेन्द्र भगवान्को विराजमान करते हैं ॥ १८२८ ॥ सौधर्मेन्द्र दक्षिण पीठपर और ईशानेन्द्र उत्तर पीठपर स्थित होकर महती विशुद्धिसे अभिषेक करते हैं ॥ १८२९ ॥ अग्निदिशामें उत्तर-दक्षिणदीर्घ और पूर्व-पश्चिमभागमें विस्तीर्ण रजतमयी पाण्डुकम्बला नामक शिला स्थित है ॥ १८३०॥ १ द तीर. २ ब बहुमो. ३ द व तुंगा. ४ द व गच्छे सव्विद पंडसिलाए. ५ द व वसंति. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001274
Book TitleTiloy Pannati Part 1
Original Sutra AuthorVrushabhacharya
AuthorA N Upadhye, Hiralal Jain
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1956
Total Pages598
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Geography
File Size12 MB
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