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________________ ३७६] तिलोयपण्णत्ती [ ४. १७८३ कमहाणाए उवरि धरपट्टम्मि दससहस्साणि । जोयणसहस्समेकं विस्थारो सिहरभूमीए ॥ १७८३ सरसमयजलदणिग्गयदिणयरबिंबं व सोहए मेरू । विविहवररयणमंडियवसुमइमउडो ब्व उत्तुंगो ॥ १७८४ जम्माभिसेयसुररेइददुंदुहीभेरितूरणिग्योसो। जिणमहिमजणिदविक्कमसुरिंदसंदोहरमणिजो ॥ १७८५ ससिहारहंसधवलुच्छलंतखीरंबुरासिसाललोघो । सुरकिण्णरमिहुणाणं णाणाविहकीडणेहिं जुदो ।। १७८६ घणयरेकम्ममहासिलसंचरणजिणवरिंदभवणोघो । विविहतरुकुसुमपल्लवफलणिवहसुयंधभूभागो।। १७८७ भूमीदो पंचसया कमहाणीए तदुवरि गंतूर्ण । तटाणे संकुलिदो पंचसया सो गिरी जुगवं ॥ १७८८ समवित्थारो उवरि एक्कारसहस्सजोयणपमाणं । तत्तो कमहाणीए इगिवण्णसहस्सपणसया गंतुं ॥ १७८९ ११.०० । ५१५००। जुगवं समतदो सो संकुलिदो जोयणाणि पंचसया। समरुंद उवरितले एकारसहस्सपरिमाणं ॥ १७९० ५००।११०००। फिर क्रमसे हानिरूप होनेसे उसका विस्तार ऊपर धरापृष्ठपर अर्थात् पृथिवीके ऊपर दश हजार योजन और शिखरभूमिपर एक हजार योजनमात्र है ॥ १७८३ ॥ १००० । १००००। यह उन्नत मेरुपर्वत शरत्कालके बादलों से निकले हुए सूर्यमण्डलके समान और विविध प्रकारके उत्तम रत्नोंसे मण्डित पृथिवीके मुकुटके समान शोभायमान होता है ॥ १७८४ ॥ वह मेरुपर्वत जन्माभिषेकके समय देवोंसे रचे गये दुंदुभी, भेरी एवं तूर्यके निर्घोषसे सहित और जिनमाहात्म्यसे उत्पन्न हुए पराक्रमवाले सुरेन्द्रसमूहोंसे रमणीय होता है ॥१७८५ ॥ चन्द्रमा, हार अथवा हंसके समान धवल एवं उछलते हुए क्षीरसागरके जलसमूहसे युक्त वह मेरुपर्वत किनर जातिके देवयुगलोंकी नाना प्रकारकी क्रीडाओंसे सुशोभित होता है ।। १७८६ ।। अतिसघन कर्मरूपी महा शिलाओंको चूर्ण करनेवाले जिनेन्द्रभवनसमूहसे युक्त वह मेरुपर्वत अनेक प्रकारके वृक्ष, फूल, पल्लव और फलोंके समूहसे पृथिवीमण्डलको सुगंधित करनेवाला है ।। १७८७ ॥ यह मेरुपर्वत क्रमसे हानिरूप होता हुआ पृथिवीसे पांचसौ योजन ऊपर जाकर उस स्थानमें युगपत् पांचसौ योजनप्रमाण संकुचित हो गया है ॥ १७८८ ॥ पश्चात् इससे ऊपर ग्यारह हजार योजन तक समान विस्तार है । वहांसे पुनः क्रमसे हानिरूप होकर इक्यावन हजार पांचसौ योजनप्रमाण ऊपर जानेपर वह पर्वत सब ओरसे युगपत् पांचसौ योजन फिर संकुचित होगया है । इसके आगे ऊपर ग्यारह हजार योजन तक उसका समान विस्तार है ।। १७८९-१७९० ॥ समविस्तार ११००० । क्रमहानि ५१५०० । संकोच ५०० । समविस्तार ११०००। १ द ब णिग्गह. २ ब सुररइदुंदुहि. ३ द ब दुंदुहिभेरीतूरणादणिग्योसो. ४ द ब धवलुच्छंदखीर'. ५ द ब घणहरं. ६ द ब समंतदे. ७ द ब तलो. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org |
SR No.001274
Book TitleTiloy Pannati Part 1
Original Sutra AuthorVrushabhacharya
AuthorA N Upadhye, Hiralal Jain
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1956
Total Pages598
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Geography
File Size12 MB
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