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- ४. १७५० ]
उत्थो महाधियारो
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अवसेसवण्णणाओ सुसमस्स व होंति तस्ले खेत्तस्स । णवीर य संठिदरूवं परिहीणं हाणिवड्डीहिं ॥ १७४४ तक्खे से बहुम चेट्ठदि विजयावदित्ति णाभिगिरी । सव्वदिव्ववण्णणजुत्ता इह किर चारणा देवा ॥ १७४५ महपउमदा नदी उत्तरभागेण तोरणहारे । णिस्सरिदूणं वच्यदि पञ्चदउवरिम्मि हरिकंता ॥ १७४६ सा गिरिउवरिं गच्छइ एकसदस्सं पणुत्तरा खसया । जोयणया पंच कला पणालिए पडदि कुंडम्मिं ॥ १७४७
१६०५ । ५ । १९
कोसेहिमपाविय णाभिगिरिंदं पदाहिणं कायुं । पच्छिम मुद्देण वञ्चदि रोहीदो बिगुणवासादी || १७४८ छप्पण्णसहस्सेहिं परिवारतरंगिणीहिं परियरिया । दीवस्स य जगदिबिलं पविसिय पविसेइ लवणणिहिं ॥ १७४९
५६००० ।
| हरिवरसो गदो ।
सोलससहस्सअडसयबादाला दो कला णिसहरूं । उणवीसहिदा सूई तीसैसहस्त्राणि छलक्खं ॥ १७५० १६८४२ । २ । ६३०००० । १९ १९
उस क्षेत्रका अवशेष वर्णन सुषमाकालके समान है । विशेष यह है कि वह क्षेत्र हानिवृद्धि से रहित होता हुआ संस्थितरूप अर्थात् एकसा ही रहता है ॥ १७४४ ॥
इस क्षेत्रके बहुमध्यभागमें विजयवान् नामक नाभिगिरि स्थित है । यहांपर सर्व दिव्य वर्णन से संयुक्त चारण देव रहते हैं ।। १७४५ ॥
महापद्मद्रहके उत्तरभागसम्बन्धी तोरणद्वारसे हरिकान्ता नदी निकलकर पर्वतके ऊपर से जाती है || १७४६ ॥
वह नदी एक हजार छहसौ पांच योजन और पांच कलाप्रमाण पर्वतके ऊपर जाकर नालीके द्वारा कुण्ड में गिरती है ।। १७४७ ॥। १६०५.९ ।
पश्चात् वह नदी दो कोससे नाभिगिरिको न पाकर अर्थात् नाभिगिरिसे दो कोस इधर ही रहकर उसकी प्रदक्षिणा करके रोहित नदीकी अपेक्षा दुगुणे विस्तारादिसे सहित होती हुई पश्चिमकी ओर जाती है ।। १७४८ ॥
इसप्रकार वह नदी छप्पन हजार परिवारनदियोंसे सहित होती हुई द्वीपके जगतीचिलमें प्रवेश करके लवणसमुद्र में प्रवेश करती है || १७४९ ।। ५६००० ।
हरिवर्षक्षेत्रका वर्णन समाप्त हुआ ।
निषधपर्वतका विस्तार सोलह हजार आठसौ ब्यालीस योजन और दो कला तथा सूची । उन्नीस से भाजित छह लाख तीस हजार योजनप्रमाण है | १७५० | १६८४२ । ६ ३०० ० ० 1
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१ द ब तस्सु. २ द ब कूडम्मि ३ द वीससहस्साणि.
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