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है उसी प्रकार ज्ञानचक्षुसे रहित व्यक्तियोंको ज्ञानचक्षु प्रदान करने का आदर्श किया है । यह कार्य दोशीवंशकी प्रतिष्ठा के अनुरूपही हुआ है ।
त्यागवीर ! इस विषयको सभी जानते हैं कि, निर्मोह वृत्तिसे बढकर कोई व्रत नहीं, संयम नहीं, शील नहीं परन्तु उस विवेकको अपने जीवन में कार्यरूप परिणत करना कोई सामान्य विषय नहीं । हमें इस बातका अनुभव करते हुए आनन्द होता है कि, धन, कनक, संपत्तिर्का समृद्धि होते हुए भी आपने सर्वथा उससे मोहका परित्याग किया है । एवं उस संपत्तिको तृणवत् समझकर जैन संस्कृति संरक्षणके लिये उदार हृदयसे समर्पण कर दिया है । इस तरह स्वहस्तोपार्जित लाखोंकी संपत्तिको स्वहस्तसे सद्विनियोग कर परमसन्तोष वृत्तिको व्यक्त किया है। एवं निःश्रेयसके साधनको निश्चित कर लिया है ।
महात्मन् ! आपके गुणरूपी समुद्र में हम लोग कहांतक अवगाहन कर सकते हैं ? तथापि आपके हीरक महोत्सव के प्रसंग में अपने कर्तव्यका अंशतः पालन करने के लिये उपस्थित हैं । हमारी भावना है आप दीर्घायुष्य की प्राप्ति करें एवं हमें ऐसे कई उत्सव मनाने के अवसर मिलें ।
सोलापुर, पौष शु. १४ वीरसंवत् २४७१ वि. संवत् २००१
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गुणानुरक्त
दि. जैन समाज, सोलापुर
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