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________________ -४. १६२४ ] चउत्यो महाधियारो [३५५ चकिस्स विजयभंगो णिवुइगमणं च थोवजीवाणं । चक्रधराउ दिजाणं' हवेदि वंसस्स उप्पत्ती ।। १६१८ दुस्समसुसमे काले अट्ठावण्णा सलायपुरिसा य । णवमादिसोलसंतं सत्तसु तित्थेसु धम्मवोच्छेदो॥ १६१९ एकरस होति रुद्दा कलहपिया गारदा य णवसंखा । सत्तमतेवीसंतिमतित्थयराणं च उवसग्गो ॥ १६२० तदियचदुपंचमेसु कालेसं परमधम्मणासयरा। विविहकुदेवकुलिंगी दीसते दुपाविट्ठौ ।। १६२१ चंडालसबरपाणप्पुलिंदणाहलचिलायपहुदिकुला । दुस्समकाले कक्की उवकक्की होति बादाला ॥ १६२२ अइबुट्ठिअणावुट्ठी भूवड्डी बजअग्गिपमुहा य । इय णाणाविहदोसा विचित्तभेदा हवंति पुढं ॥ १६२३ ।एवं कालविभागो समत्तो। एवं भरहखेत्तपरूवर्ण समत्तं । सदमुग्विद्धं हिमवं खुल्लो पणुवीसजोयणुव्वेहो। विक्खंभे सहस्सं बावण्णा बारसेहि भागेहि ॥ १६२४ १००।२५।१०५२ । १२। चक्रवर्तीका विजयभंग और थोडेसे जीवोंका मोक्षगमन भी होता है । इसके अतिरिक्त चक्रवर्तीसे की गयी द्विजोंके वंशकी ( वर्णकी ) उत्पत्ति भी होती है ॥ १६१८ ॥ दुष्षमसुषमाकालमें अठ्ठावन ही शलाकापुरुष होते हैं और नौवेंसे सोलहवें तीर्थंकर तक सात तीर्थोमें धर्मकी व्युच्छित्ति होती है ।। १६१९ ॥ ग्यारह रुद्र और कलहप्रिय नौ नारद होते है तथा इसके अतिरिक्त सातवें, तेईसवें और अन्तिम तीर्थंकरके उपसर्ग भी होता है ॥ १६२० ॥ तृतीय, चतुर्थ व पंचम कालमें उत्तम धर्मको नष्ट करनेवाले विविध प्रकारके दुष्ट पापिष्ट कुदेव और कुलिंगी भी दिखने लगते हैं ॥ तथा चाण्डाल, शबर, पाण (श्वपच ), पुलिंद, लाहल और किरात इत्यादि जातियां उत्पन्न होती है तथा दुष्षमकालमें ब्यालीस कल्की व उपकल्की होते हैं ॥ १६२१-१६२२ ।। अतिवृष्टि, अनावृष्टि, भूवृद्धि (भूकंप), और वज्राग्नि आदिका गिरना, इत्यादि विचित्र भेदोंको लिये हुए नाना प्रकारके दोष इस हुण्डावसर्पिणीकालमें हुआ करते हैं ॥ १६२३ ॥ इसप्रकार कालका विभाग समाप्त हुआ । इसप्रकार भरतक्षेत्रका प्ररूपण समाप्त हुआ । क्षुद्र हिमवान् पर्वतकी उंचाई सौ योजन, अवगाह पच्चीस योजन, विस्तार एक हजार बावन योजन तथा एक योजनके उन्नीस भागोंमेंसे बारह भाग अधिक है ॥ १६२४ ॥ उत्सेध १०० । अवगाह २५ । विष्कम्भ १०५२१२ । १ ब चक्कधराओ जिदाणं. २ द ब कट्टपाविटा. ३ द ब चिलालपहुदि. ४ द ब सरूवणं. ५ दब जोयणोवेदो. ६ द ब भागो य.. . Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001274
Book TitleTiloy Pannati Part 1
Original Sutra AuthorVrushabhacharya
AuthorA N Upadhye, Hiralal Jain
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1956
Total Pages598
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Geography
File Size12 MB
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