SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 420
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ -४. १६०८ ] चउत्थो महाधियारो [ ३५३ दो कोसा उच्छेहो णारिणरा पुण्णविंदुसरिसमुहा । बहुविणयसीलवंता विगुणियचउसटिपुट्ठी ॥ १६०१ सुसमो समत्तो। सुसमसुसमाभिधाणो ताहे पविसेदि छ?मो कालो । तस्स पढमे पएसे भाजपहुदीणि पुन्वं व ॥ १६०२ ताई मणुवतिरियाणं । ताधे एस धरित्ती उत्तमभोगावणि त्ति सुपसिद्धा ॥ १६०३ तच्चरिमम्मि णराणं आऊ पल्लत्तयप्पमाणं च । उदएण तिणि कोसा उदयदिणिंदुजलसरीरा ।। १६०४ बेसदछप्पण्णाई पुट्ठी होति ताण मणुवाणं । बहुपरिवारविकुब्वणसमत्थसत्तीहिं संजुत्ता ॥ १६०५ ताहे पविसदि णियमा कमेण अवसप्पिणि त्ति सो कालो। एवं अजाखंडे परिय१ते दु-काल-चत्तारि ॥ १६०६ पणमेच्छखयरसेढिसु अवसप्पुस्सप्पिणीए तुरिमम्मि । तदियाए हाणिचयं कमसो पढमादु चरिमो त्ति ॥ १६०७ उस्सप्पिणीए अजाखंडे अदिदुस्समस्स पढमखणे । होति हु णरतिरियाणं जीवा सव्वाणि थोवाणिं ॥ १६०८ उस समयके नर-नारी दो कोस ऊंचे, पूर्ण चन्द्रमाके सदृश मुखवाले, बहुत विनय एवं शीलसे सम्पन्न और दुगुणित चौंसठ अर्थात् एकसौ अट्ठाईस पृष्ठभागकी हड्डियोंसे सहित होते हैं ॥ १६०१॥ सुषमाकालका कथन समाप्त हुआ । तदनन्तर सुषमसुषमा नामक छठा काल प्रविष्ट होता है। उसके प्रथम प्रवेशमें आयुप्रभृति पहिलेके समान ही होते हैं ॥ १६०२ ॥ कालस्वभावके बलसे मनुष्य और तिर्यचोंकी वे आयु आदिक क्रमसे आगे आगे बढ़ती जाती हैं। उस समय यह पृथिवी उत्तम भोगभूमिके नामसे सुप्रसिद्ध हो जाती है ॥ १६०३ ॥ उस कालके अन्तमें मनुष्योंकी आयु तीन पत्यप्रमाण और उंचाई तीन कोस होती है। उस समयके मनुष्य उदय होते हुए सूर्यके समान उज्ज्वल शरीरवाले होते हैं ।। १६०४ ॥ ____ उन मनुष्यों के पृष्ठभागकी हड्डियां दोसौ छप्पन होती हैं, तथा वे बहुत परिवारकी विक्रिया करने में समर्थ ऐसी शक्तियोंसे संयुक्त होते हैं ॥ १६०५ ॥ इसके पश्चात् फिर नियमसे वह अवसर्पिणीकाल प्रवेश करता है । इसप्रकार आर्यखण्डमें दो और चार अर्थात् छह काल प्रवर्तते रहते हैं ॥ १६०६ ॥ पांच म्लेच्छखण्ड और विद्याधरश्रेणियोंमें अवसर्पिणी एवं उत्सर्पिणीकालमें क्रमसे चतुर्थ और तृतीय कालके प्रारम्भसे अन्त तक हानि व वृद्धि होती रहती है। (अर्थात् इन स्थानोंमें अवसर्पिणीकालमें चतुर्थकालके प्रारम्भसे अन्त तक हानि और उत्सर्पिणी कालमें तृतीय कालके प्रारम्भसे अन्त तक वृद्धि होती रहती है। यहां अन्य कालोंकी प्रवृत्ति नहीं होती है ) ॥ १६०७ ॥ ___ उत्सर्पिणीकालके आर्यखण्डमें अतिदुष्षमाकालके प्रथम क्षणमें मनुष्य और तिर्यञ्चोंमेंसे सब जीव थोड़े होते हैं ॥ १६०८ ॥ १ द व सुसमदुस्सम समत्ता. TP46. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001274
Book TitleTiloy Pannati Part 1
Original Sutra AuthorVrushabhacharya
AuthorA N Upadhye, Hiralal Jain
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1956
Total Pages598
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Geography
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy