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________________ - ४. १५३८ ] उत्थो महाधियारो [ ३४५ कतिय बहुलस्ते सादीसुं दिणयरम्मि उग्गमिए । कियसण्णासी सब्वे पार्वति समाहिमरणं हि ।। १५३१ विमार्जुतो सोधम्मे मुनिवरों तदो जादो । तम्मि य ते तिष्णि जणा साधियपलिदोवमाउजुद ॥ १५३२ दिवसे मज्झदे कय कोहो को वि असुरवरदेओ । मारेदि कक्किरायं अग्गी णासेदि दिणयरत्थमणे || १५३३ एवमिगिवीस कक्की उबकक्की तेत्तिया य धम्माए । जम्मंति धम्मदोहा जलणिहिउवमाणआउजुदा || १५३४ वासतर अडमासे पक्खे गलिदम्मि पविसदे तत्तो । सो अदिदुस्समणामो छट्टो कालो महाविसमो ॥। १५३५ वा ३ मा ८, दि १५ । तस्स पढमपए से तिहृत्यदेहो' अहुट्ठहस्थो य । तह बारह पुट्ठट्ठी परमाऊ वीस वासाणि ।। १५३६ ३ । ७ । १२ । २० । २ मूलफलमच्छादी सव्वाणं माणुसाण आहारो । ती वासा वच्छा गेहप्पहूदी णरा ण दसिंति ॥ १५३७ तत्तो जग्गा सन्त्रे भवणविहीणा वणेसु हिंडता । सब्बंगधूमवण्णां गोधम्मपरायणा कूरा || १५३८ वेब कार्तिक मास के कृष्णपक्षके अन्तमें अर्थात् अमावस्या के दिन सूर्यके स्वाति नक्षत्र के ऊपर उदित रहनेपर संन्यासको करके समाधिमरणको प्राप्त करते हैं ॥ १५३१ ॥ समाधिमरणके पश्चात् वीरांगद मुनि एक सागरोपम आयुसे युक्त होते हुए सौधर्म स्वर्ग में उत्पन्न हुए ( होंगे और वे तीनों जन भी एक पल्योपमसे कुछ अधिक आयुको लेकर ariपर ही ( सौधर्म स्वर्ग में ) उत्पन्न होंगे || १५३२ ॥ उसी दिन मध्याह्नकालमें क्रोधको प्राप्त हुआ कोई असुरकुमार जातिका उत्तम देव कल्की राजाको मारता है और सूर्यास्तसमय में अग्नि नष्ट होती है ॥ १५३३ ॥ इसप्रकार इक्कीस कल्की और इतने ही उपकल्की धर्मके द्रोहसे एक सागरोपम आयुसे युक्त होकर घर्मा पृथिवीमें जन्म लेते हैं || १५३४ ॥ इसके पश्चात् तीन वर्ष, आठ मास और एक पक्षके बीत जानेपर महाविषम वह अतिदुष्षमा नामक छठा काल प्रविष्ट होता है ।। १५३५ ॥ वर्ष ३, मास ८, दिन १५ । उसके प्रथम प्रवेशमें शरीरकी उंचाई तीन अथवा साढ़े तीन हाथ, पृष्टभागकी हड्डियां बारह और उत्कृष्ट आयु बीस वर्षप्रमाण होती है ।। १५३६ || ३ | ३ | १२ । २० । उस कालमें सब मनुष्यों का आहार मूल, फल और मत्स्यादिक होते हैं । उस समय वस्त्र, वृक्ष और मकानादिक मनुष्योंको दिखाई नहीं देते || १५३७ ॥ इसीलिये सत्र मनुष्य नंगे और भवनोंसे रहित होकर वनोंमें घूमते हैं । उस समय के लोग सर्वांग धूम्रवर्ण, गोधर्मपरायण अर्थात् पशुओं जैसा आचरण करनेवाले, क्रूर, बहिरे, अन्धे, १ द ब कियसण्णासो २ द ब जुत्ता ३ द ब मुणिवरे ४ द ब जुदो. ५ द दुहत्थवेदओ, बतिहत्थदेहओ. ६ द थावे, ब थादे. ७ द ब धूमवण्णो. TP. 44 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001274
Book TitleTiloy Pannati Part 1
Original Sutra AuthorVrushabhacharya
AuthorA N Upadhye, Hiralal Jain
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1956
Total Pages598
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Geography
File Size12 MB
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